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से तुमने इस लोक को हस्तामलक की भाँति देख लिया है। धन्य है तुम्हारे विज्ञान के अतिशय को! जिसके आधार पर तुम पुरुष तथा खलीपिण्ड एवं कुमार व अलाबुक में कोई अन्तर मानने से पाप होना तथा न मानने से पाप नहीं होना बतलाते हो।
आर्द्रक बौद्धमत का खण्डन करने के पश्चात् अपने मत की स्थापना करते हुये कहते है - जैन शासन में संयमी मुनियों ने अन्नविधि में शुद्धता को स्वीकार किया है। वे 42 दोषों से रहित आहार का ही सेवन करते है एवं माँसाहार को निर्दोष नहीं मानते। संयमी साधक सर्व सावद्य प्रवृत्तियों से मुक्त होने के कारण उद्दिष्ट आहार का भी त्याग करते है। जैसे शिरीष पुष्प थोड़े से ताप से ही कुम्हला जाता है, उसी प्रकार श्रामण्य थोड़े से दोष सेवन से अशुद्ध हो जाता है।
इस प्रसंग में वृत्तिकार ने बौद्ध भिक्षुओं के इस तर्क को निरस्त किया है कि चावल आदि धान्य कण भी प्राणी के अंग के सदृश होने के कारण माँस तुल्य है। यह तर्क कथमपि उचित नहीं है। क्योंकि प्राणी का अंग होने पर भी कुछ माँस होता है, कुछ माँस नहीं होता। जैसे दूध और रक्त दोनों ही गाय के अंग होने पर भी दूध भक्ष्य है, माँस अभक्ष्य। स्त्रीत्व की समानता होने पर भी लोक में माता अगम्य और भार्या गम्य मानी जाती है। चावल एकेन्द्रिय प्राणी का अंग है, इतने मात्र से वह माँस की कोटि में नहीं आता। इस प्रसंग में वृत्तिकार ने असिद्ध. अनैकान्तिक और विरूद्ध हेत्वभासों के द्वारा इसमें दोष बताये है। वर्तमान दृष्टि से विचार करे तो एकेन्द्रिय जीव में वेक्ल रस धातु की निष्यति होती है। उसमें रक्त नहीं होता और रक्त बिना माँस धातु की निष्पति नहीं होती। रक्त तथा माँस की निष्पत्ति द्वीन्द्रिय जीवों से प्रारम्भ होती है, अत: माँस तथा अन्न की तुलना संगत नहीं है।
बौद्धों का यह कथन भी निराधार और मिथ्या है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार बोधिसत्व भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह उत्तमगति को प्राप्त होता है। ऐसे माँसाहारी भिक्षुओं को भोजन कराने वाला असंयमी है। उसके हाथ रक्त से सने रहते है, अत: वह परलोक में अनार्य लोगों की गति प्राप्त करता है अर्थात तीव्र ताप को सहने वाला नरकसेवी होता है। 3. वेदवादी ब्राह्मणों के साथ आर्द्रक का प्रतिवाद
वेदवादी - जो प्रतिदिन दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को भोजन कराता
210 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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