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________________ इस प्रकार तिरस्कार योग्य ज्ञानवाले आत्माद्वैतवादियों को और सम्पूर्ण ज्ञान-दर्शन- चारित्र युक्त जिनों को अपनी समझ में समान बतलाकर हे आयुष्यमान् ! तुम अपनी ही विपरीतता प्रकट करते हो । वृत्तिकार ने एकात्मावाद के आधार पर इसे वेदान्त दर्शन का अभिमत कहा है। 2” किन्तु वास्तव में यह विचारणीय है। सांख्यदर्शन की अपेक्षा वेदान्तदर्शन बहुत अर्वाचीन है । सांख्य दर्शन की दो धाराएँ रही है - एक ईश्वरवादी तथा दूसरी अनीश्वरवादी । ईश्वरवादी धारा में एकेश्वरवाद सम्मत रहा है पातंजलयोगदर्शन में इसकी स्पष्ट प्रकल्पना है। उसके अनुसार ईश्वर सदैव मुक्त है, अनादि सिद्ध है | 30 प्राचीन काल में श्रमण परम्परा में भी कुछ श्रमण सम्प्रदाय ईश्वरवादी थे । सांख्य एक श्रमण सम्प्रदाय था और उसका एक भाग ईश्वरवादी भी था । इस दृष्टि से प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या वेदान्त दर्शन से सम्बद्ध नहीं होनी चाहिये किन्तु इसका सम्बन्ध सांख्य दशर्न से है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है 'पुरुष' शब्द का प्रयोग । वेदान्त ब्रह्मवादी है, पुरुषवादी नहीं । 5. हस्तितापसों की मिथ्याधारणा का आर्द्रक मुनि द्वारा युक्तियुक्त प्रत्युत्तर हस्तितापस - हे आर्द्रकुमार ! हम द्वादशाग्र, अभ्युदयकामी हस्तितापस परम कारूणिक है। वन में निवास करने से मूल, कन्द, फूल, फल आदि अनेक घात करने पर भोजन होता है । अत: हम इसे दोषयुक्त जानकर संवत्सर (वर्ष) में एक बार विषलिप्त बाण से एक बड़े हाथी को मारकर उसके माँस से अपनी आजीविका चलाते है। हम एक ही जीव का घात करते है, अन्य सारे जीवों की रक्षा करते है। जबकि अन्य तापस, जो कन्द, मूल, फल, फूल आदि खाते है, वे अनेक वनस्पतिकायिक जीवों का तथा उनके आश्रय में रहने वाले अनेक प्राणियों का घात करते है । एक प्राणी के वध का जो हमें पाप होता है, उसको हम आतापना, उपवास, जाप, ब्रह्म-पालन द्वारा क्षीण कर देते है । हमारा यह हस्तितापस मत स्मृतियों में भी विहित है । " जीवों आर्द्रकुमार - हिंसा - अहिंसा की न्यूनाधिकता का नापतौल मृत संख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनकी इन्द्रियों, मन, शरीर आदि के विकास के आधार पर किया जाता है । वर्ष भर में एक ही प्राणी के घात से सिर्फ एक 212 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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