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वे पूर्ण अहिंसक, परोपकारक, कर्म क्षीण करने के लिये धर्म में स्थित है। उनकी तुलना तुम अहित करने वाले वणिक के साथ कर रहे हो, यह तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है। 2. बौद्धों के अपसिद्धान्त का आईक मुनि द्वारा खण्डन
बौद्ध भिक्षु - कोई पुरुष खली के पिण्ड को मनुष्य तथा तुम्चे को बालक मानकर पकाये तो हमारे मत में पुरुष तथा बालक के वध का ही पाप लगता है परन्तु यदि कोई म्लेच्छ पुरुष एवं बालक को खली एवं तुम्बा समझकर पकाये तो वह पुरुष एवं बालक के वध का पाप उपार्जित नहीं करता तथा पुरुष व बच्चे को शूल में पिरो ‘यह खली की पिण्डी है' ऐसा सोचकर आग में पकाये, वह आहार बुद्धों के भक्षण योग्य है।' हे आर्द्रक ! हमारे मत में जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह महान पुण्य स्कन्ध को अर्जित कर देवगति में आरोप्य नामक सर्वोत्तम देवता होता है।
चूर्णिकार ने इसका विश्लेषण इस प्रकार किया है - बौद्ध भिक्षुओं के अनुसार दूसरे द्वारा घात किये हुए प्राणी का माँस लेने पर हम हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होते। माँस ग्रहण में हमारी अनभिसंधी है। त्रिकरण शुद्ध माँस खाने में कोई दोष नहीं लगता क्योंकि बुद्ध स्वयं उसे ग्रहण करते थे, तो भला शिष्यों के लिये कहना ही क्या।।
बौद्ध साहित्य में माँस के सम्बन्ध में निम्न प्रकार का निर्देश मिलता हैभिक्षुओं को सम्बोधित करते हुये बुद्ध कहते हैं - जान-बूझकर अपने उद्देश्य से बने हुये माँस को नहीं खाना चाहिये। जो खाये उसे दुष्कर दोष लगता है। भिक्षुओं ! अदृष्ट, अश्रुत तथा अपरिशंकित इन तीन कोटि से परिशुद्ध माँस खाने की मैं अनुज्ञा देता हूँ।"
बौद्ध भिक्षुओं के सिद्धान्त को सुनकर आर्द्रकुमार मुनि ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा- हे शाक्य भिक्षुओं ! तुम्हाग यह सिद्धान्त बड़ा विचित्र है । इस प्रकार प्राणियों की बलप्रयोग से हिंसा करना और उसमें पाप का अभाव कहना, संयमी पुरुषों के लिये उचित नहीं है। जो ऐसा उपदेश देते है और जो सुनते है- वे दोनों ही अकल्याण तथा अबोधि को प्राप्त होते है।
यहाँ चूर्णिकार ने अबोधि का अर्थ अज्ञान किया है। अज्ञान के कारण यदि पाप कर्म का बंध नहीं होता है तो यही सिद्ध होगा कि अज्ञान ही श्रेयस्कर
208 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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