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________________ यदि ऐसा करना भी निन्दा है, तब तो आग गर्म होती है, जल ठण्डा होता है, यह कहना भी निन्दा ही होगा। 2 गोशालक - हे आर्द्रक ! तुम्हारे श्रमण भगवान बड़े भीररू है, इसलिये उद्यानशालाओं, धर्मशालाओं तथा आरामगृहों में निवास नहीं करते। वे समझते है कि इन स्थानों में बड़े-बड़े तार्किक, पण्डित, मेधावी, बुद्धिमान, सूत्र तथा अर्थ के निश्चय को जानने वाले वक्ता रहते है। वे लोग कुछ पूछ ले और उत्तर न दे सकूँ, इससे बेहतर वहाँ नहीं जाना ही है। आर्द्रक - भगवान महावीर न डरपोक है न विषमदृष्टि है। वे निष्प्रयोजन कोई भी कार्य नहीं करते तथा बालक की तरह बिना विचार किये भी कोई कार्य नहीं करते। वे न किसी बल प्रयोग से, राजाभियोग से धर्मोपदेश करते है। वे अपनी सिद्धि के लिये तथा भव्य जीवों के उद्धार के लिये धर्म देशना देते है। जब वे उपकार होने की सम्भावना को जान लेते है, तो किसी के द्वारा कभी भी पूछे गये प्रश्न का उत्तर दे देते है। (अनुत्तर विमानवासी तथा मन:पर्यव ज्ञानी मुनियों के प्रश्नों का समाधान वाणी के बिना द्रव्यमन से ही कर लेते है।) जहाँ कृत्य की सार्थकता हो वहाँ जाकर अथवा न जाकर समदृष्टि से धर्म का व्याकरण करते है। परन्तु अनार्य मनुष्य दर्शन से भ्रष्ट है, अत: भगवान उनके पास नहीं जाते। गोशालक - जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय की वस्तु को लेकर महाजनों से सम्पर्क करता है, मेरी दृष्टि में तुम्हारा महावीर भी लाभ इच्छुक वणिक् है।'' आर्द्रक मुनि - श्रमण महावीर को तुमने जो वणिक की उपमा दी है, वह आंशिक तुल्यता से लेकर दी है, तब तो मैं तुमसे सहमत हूँ क्योंकि भगवान महावीर जहाँ भी आत्मिक उपकार रूप लाभ देखते है, वहाँ उपदेश करते है। अन्यथा मौन हो जाते है। परन्तु यदि सम्पूर्ण तुल्यता को लेकर वणिक् से भगवान की तुलना की है, तो वह कदापि उचित नहीं है, क्योंकि भगवान सर्वज्ञ है, जबकि वणिक अल्पज्ञ । सर्वज्ञ होने से समस्त सावद्य प्रवृत्तियों से विरत होने से वे नवीन कर्म का बंध नहीं करते है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करते है, जबकि वणिक ऐसा नहीं करते । भगवान मोक्षोदय चाहते है, इस अर्थ में वे लाभार्थी है। वे अन्न, पान, पूजा या प्रतिष्ठा के लिये उपदेश नहीं देते, जबकि वणिक हिंसा, असत्य, अब्रह्म आदि अनेक पाप का बंध करता है। उनका यह लाभ भी चार गति में भ्रमणरूप है। भगवान जो लाभ अर्जित कर रहे है, वह सादि अनन्त है। सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 207 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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