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वे सहस्रों के बीच रहकर भी एकान्त की ही साधना कर रहे है। क्षान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, भाषा के दोषों से मुक्त तथा भाषा के गुणों से युक्त श्रमण महावीर धर्मोपदेश देते है, अहिंसा का आख्यान करते है, इसमें किंचित भी दोष नहीं है।
गोशालक - हमारे मत में एकान्तचारी तपस्वी शीतोदक, बीजकाय, आधाकर्म और स्त्री संग करता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता।
आर्द्रक - यदि सचित्त जल, बीजकाय, आधाकर्म युक्त आहार तथा स्त्री सेवन से पाप नहीं लगता, तब तो सभी गृहस्थ श्रमण हो जायेंगे। क्योंकि वे ये सभी कार्य करते है। जो भिक्षु होकर भी सचित्त बीजकाय, शीतजल तथा आधाकर्मदोष युक्त आहारादि का सेवन करते है, वे पुरुष भिक्षाचर्या, कर्मों का अन्त करने के लिये नहीं अपितु उदरभरण तथा शरीर पोषण के लिये ही करते है। वास्तव में जो षट्काय जीवों का समारम्भ करते या कराते है, चाहे वे द्रव्य से ब्रह्मचारी भी हो, संसार का अन्त नहीं कर सकते । जो हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म तथा परिग्रह से मुक्त है, पंचाश्रव रहित है, वही सच्चा श्रमण है।
गोशालक - ऐसा कहकर तुम सभी मतों का तिरस्कार कर रहे हो।
आर्द्रक - गोशालक ! मैं न तो अन्य मतों का तिरस्कार करता हूँ, न ही निन्दा करता हूँ। हम किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप भी नहीं करते। परन्तु जो दार्शनिक अपने-अपने मत को सत्य बताते हुये अन्य पक्षों को मिथ्या बताते है, उनके इस एकांगी दृष्टिकोण को सत्य तथा यथार्थ कैसे कहा जा सकता है ? वस्तु के अनन्त धर्मों को जानने के लिये अनेकान्तदृष्टि ही उपयोगी है। उसी का आश्रय लेकर मैं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को व्यक्त कर रहा हूँ, जिसे निन्दा कहना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि जैसे 'नेत्रवान पुरुष अपनी आँखों से बिल, काँटे-कीड़े और साँप आदि को देखकर उन सबको छोड़कर ठीक रास्ते से चलता है, उसी प्रकार विवेकीपुरुष कुज्ञान, कुश्रुति, (मिथ्या आगम), कुमार्ग और कुदृष्टि के दोषों का भलीभाँति विचार करके सम्यग्मार्ग का आश्रय लेता है। ऐसा करने में कौनसी परनिन्दा है ?'' वास्तव में देखा जाये तो वे अन्य दर्शनी ही परनिन्दा करते है, जो पदार्थ के एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य अथवा एकान्त सामान्य या एकान्त विशेष स्वरूप को मानते है। जो अनेकान्तवादी अनेकान्त को मानते है, वे किसी की निन्दा नहीं करते क्योंकि वे तो पदार्थों को कथंचित् सत, कथंचित् असत् अथवा कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य मानकर सबका समन्वय करते है। ऐसा किये बिना वस्तु स्वरूप का सम्यक् तथा सम्पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता।
206 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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