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________________ तापसों के साथ वाद-विवाद हुआ। सभी ने आर्द्रक मुनि को अपने मत में दीक्षित करने का प्रयत्न किया। उन सभी को पराजित कर वे आगे बढ़े। इतने में एक विशालकाय हाथी अपने बन्धनों को तोड़कर आर्द्रक मुनि के चरणों में वन्दन करने लगा। राजा द्वारा गज बन्धन-मुक्ति के विषय में पूछने पर मुनि आर्द्रक बोले - मनुष्य के पाश से बद्ध मदोन्मत्त हाथी का मुक्त होना उतना दुष्कर नहीं है, जितना दुष्कर है- कच्चे सूत की डोरी से आवेष्टित मेरा बन्धन मुक्त होना । स्नेह तन्तु को तोड़ना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। आर्द्र कुमार के पूर्वजन्म से लेकर कच्चे सूत्र के विमोचन तक की सम्पूर्ण घटना का वृत्तिकार ने विशद रूप से रोचक वर्णन किया है।" प्रस्तुत अध्ययन में 55 गाथाएँ है, जिनका दर्शनगत विभाग इस प्रकार 1-25 = गोशालक द्वारा महावीर पर लगाये गये आक्षेप और आर्द्रक के उत्तर । 26-42 = बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अपने मत की स्थापना और आर्द्रक द्वारा उसका प्रतिवाद। 4 3-45 = ब्राह्मण धर्म की प्रतिपत्ति के विषय में आर्द्रक का उत्तर । 46-51 = एकदण्डी परिव्राजको (सांख्य) की स्थापना तथा आर्द्रक का प्रत्युत्तर । 52-55 = हस्तितापसों के सिद्धान्त का खण्डन। इन पाँचों दार्शनिकों के साथ आर्द्रक कुमार का जो वाद-विवाद हुआ, उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है - 1. गोशालक के आक्षेप तथा आर्द्रक के प्रत्युत्तर गोशालक प्रथम गाथा में आर्द्रकुमार को सम्बोधित करते हुये कहते है कि - हे आर्द्र ! श्रमण महावीर जो पहले करते थे, उसे सुनो। पहले वे एकान्त विहारी थे, अब वे देवकृत समवसरण में रहते है। पहले वे मौन रहते थे, अब वे भिक्षुसंघ को धर्मोपदेश देने की धुन में है। पहले वे शिष्य नहीं बनाते थे पर अब तो शिष्यों की भरमार है। इस प्रकार उनका जीवन विरोधाभासों से भरा पड़ा है। वे अस्थिर चित्त वाले एवं चंचल है। उनके वर्तमान के आचरण में तथा विगत आचरण में स्पष्टत: विरोध दिखायी देता है। आर्द्रक - भगवान महावीर का एकान्त भाव अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में स्थिर रहने वाला है। राग-द्वेष से रहित त्रिकालज्ञ होने के कारण सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 205 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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