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________________ किया जाता है, उतने ही अंश में पापकर्म का बंध स्वतः रूक जाता है । जो जीव असंयत, अविरत, अप्रत्याख्यानी होते है, उनके अमर्यादित मनोवृत्ति के कारण पाप के समस्त द्वार खुले रहते है । परन्तु जो प्रत्याख्यान रूप मर्यादा को स्वीकार करता है, वह उसमें अपनी आत्मा को सुरक्षित तथा पापकर्म से मुक्त करता है। अध्ययन की समाप्ति में सूत्रकार ने साधक को आत्मतुला के सिद्धान्त से समस्त जीवों के प्रति अहिंसा रखने का निर्देश दिया है। जो साधक 18 पापस्थानकों से विरत होकर किसी भी प्रकार की सावद्य क्रिया का सेवन नहीं करता, वही साधक संयत, विरत तथा संवरयुक्त है । प्रस्तुत अध्ययन की वृत्ति में वृत्तिकार ने नागार्जुनीय वाचना का पाठान्तर भी दिया है । ' 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. सन्दर्भ एवं टिप्पणी पाइअसद्दमहण्णवो - पृ. 57 जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग -1/ पृ. अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 179/180 ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र सूत्रकृतांग चूर्ण, पृ. सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र 361 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 361 : अतति सतलं (विभिन्न गतिषु योनिषु च) गच्छतीति आत्मा । सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र वही - 364 Jain Education International - - - - - 360,361 389-390 390, 391 363, 364 - 162 5. आचारश्रुत अणगार श्रुत अध्ययन सूत्रकृतांग सूत्र के (द्वि. श्रु.) पञ्चम अध्ययन का नाम 'आचारश्रुत' है। प्रस्तुत अध्ययन में आचार का वर्णन होने से इसका 'आचारश्रुत' यह नाम सार्थक है। अनाचार का प्रतिषेध होने से नियुक्तिकार ने इसका दूसरा नाम 'अनगारश्रुत' भी बतलाया है।' वृत्तिकार ने भी मतान्तर के रूप में इसी नाम की पुष्टि की है। साधक जब तक समग्र अनाचारों का त्याग या प्रत्याख्यान नहीं करता, तब तक वह पंचमहाव्रतों तथा अष्ट प्रवचन माता का सम्यक् आराधक नहीं 198 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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