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________________ का निराकरण भी “आत्मा' शब्द से हो जाता है। 3. सांख्य आत्मा को उत्पत्ति-विनाश से रहित स्थिर (कुटस्थ) एक स्वभाव वाला मानते है। ऐसा स्थिर आत्मा न तो नाना योनियों में गमन कर सकता है, न ही कोई प्रत्याख्यान । तथा आत्मा को स्थिर माना जाये तो वह तिनके को भी नहीं मोड़ सकता, तब प्रत्याख्यान तो असम्भव ही है। इस प्रकार सांख्यसम्मत आत्मा की मान्यता अयुक्तिसंगत है, यह सूचित करने के लिये ही आत्मा शब्द का प्रयोग किया है। चूर्णिकार का मत है कि प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान में आत्मा का ही संबंध है, क्योंकि प्रत्याख्यान आत्मा ही कर सकता है, अजीव घट, पटादि नहीं। जिस आत्मा ने पूर्ण सावद्य योग का प्रत्याख्यान कर लिया, वह पूर्ण प्रत्याख्यानी होता है।' संवाद की श्रृंखला में शिष्य द्वारा यह प्रश्न किया जाता है कि जिसके मन, वचन, काया पापयुक्त है, जो समनस्क है, जो हिंसा युक्त मनोव्यापार से युक्त है, वचन द्वारा भी पाप-प्रवृत्ति करता है तथा काय द्वारा भी हिंसा करता है, वह पापकर्म का बंध करे-यह ठीक है, परन्तु जो अमनस्क है, जिनके मन, वचन, काया पापयुक्त नहीं है, क्या वह भी पापकर्म का बंध करता है ? शास्त्रकार इस प्रश्न का समाधान करते है कि जिस जीव ने प्रत्याख्यान द्वारा. आश्रव द्वार का निषेध नहीं किया है, चाहे उसके मन, वचन, काया पापयुक्त न हो, वह अमनस्क हो तो भी अप्रत्याख्यानी होने के कारण सतत पापकर्म का बंध करता रहता है। इसे स्पष्ट करने के लिये शास्त्रकार ने एक सुन्दर रूपक की कल्पना की है. जैसे एक व्यक्ति वधक (वध करने वाला) है। उसने सोचा कि अमुक गृहस्थ, गृहस्थ पुत्र या राजपुरुष की हत्या करनी है। अभी थोड़ी देर विश्राम कर लूँ। मौका पाते ही उसके घर में घुसकर उसे खत्म कर दूंगा। ऐसा दुष्ट चिन्तन करने वाला सोते हये, जागते हये, बैठते हये निरन्तर वध करने की भावना से व्याप्त होता है तथा मौका मिलते ही किसी भी समय अपनी हत्या की भावना को क्रिया रूप में परिणत भी कर सकता है। अपनी इस हिंसक मनोवृत्ति के कारण वह निरन्तर पापकर्म का बंध करता रहता है। अत: जो जीव सर्वथा संयम रहित है, प्रत्याख्यान रहित है, वे समस्त षड्जीवनिकाय के प्रति हिंसक भावना से ओत-प्रोत होने के कारण कर्मबंध करते रहते है। इस पाप कर्मबंध रूप आश्रव को रोकने के लिये प्रत्याख्यान संवर द्वार है। सावद्य क्रियाओं का जितना त्याग सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 197 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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