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3. निन्द्य कर्मों से निवृत्ति लेना। 4. अहिंसादि मूलगुणों तथा सामायिकादि उत्तरगुणों के आचरण
में बाधक सिद्ध होने वाली प्रवृत्तियों का यथाशक्ति त्याग करना । नियुक्तिकार' ने प्रत्याख्यान के छ: निक्षेप किये है। नाम, स्थापना सुगम है। द्रव्य प्रत्याख्यान में द्रव्यों-पदार्थों के उपभोग का त्याग होता है। द्रव्य प्रत्याख्यान सचित्त, अचित्त तथा मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है। मुनि सभी सचित्त द्रव्यों का यावज्जीवन के लिये त्याग करता है। श्रावक भी सचित्त पानी, कन्दमूल, फल आदि वनस्पति का त्याग करता है। कोई यावज्जीवन के लिए अचित्त मद्यमाँस आदि का परित्याग करता है। कोई एक विगय का, कोई सभी का. तो कोई महाविगयों का प्रत्याख्यान करता है। भाव प्रत्याख्यान के दो भेद है - अन्त:करण से शुद्ध साधु या श्रावक के मूलगुण प्रत्याख्यान तथा उत्तरगुण प्रत्याख्यान।
प्रस्तुत अध्ययन में भाव प्रत्याख्यान ही विवक्षित है। भाव प्रत्याख्यान क्रिया निरवद्य अनुष्ठान रूप होने से आत्मशुद्धि के लिये साधक है, इसके विपरीत
अप्रत्याख्यान क्रिया सावद्यानुष्ठान रूप होने से आत्मशुद्धि में बाधक है। जो आत्मा भाव प्रत्याख्यान नहीं करता, वह अप्रत्याख्यान भावक्रिया से उत्पन्न कर्मबन्ध तथा उससे निष्यन्न संसार में भटकता रहता है। प्रत्याख्यान न करने वाले को भगवान ने असंयत, अविरत, असंवृत्त, बाल, सुप्त तथा पापक्रिया कहा है। ऐसा पुरुष विवेक रहित होने के कारण सतत कर्मबन्ध करता रहता है।
प्रस्तुत अध्ययन में संवाद शैली अपनायी गयी है, जिसका प्रारम्भ "सुयं मे आउसं तेण' से होता है।
__ अध्ययन के प्रारम्भ में अप्रत्याख्यानी आत्मा केस्वरूप तथा प्रकार सम्बन्धी चर्चा की गयी है। यहाँ मूलपाठ में जीव शब्द के स्थान पर आत्मा शब्द का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार का अभिमत है कि 'आत्मा' शब्द का ग्रहण जैनेतर दर्शनों के निरसन के लिए किया गया है। जैसे1. अप्रत्याख्यानी आत्मा नानाविध योनियों में भ्रमण करता है। आत्मा
का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी यही है, जो विभिन्न योनियों या गतियों
में परिभ्रमण करता है।'' 2. बौद्ध दर्शन में आत्मा के एकान्त क्षणिक होने से उसका प्रत्याख्यानी
होना सम्भव नहीं है। अत: बौद्ध दर्शन सम्मत आत्मसम्बन्धी मान्यता 196 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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