________________
क्यों ? इस सन्दर्भ में चूर्णिकार तथा वृत्तिकार का यह कथन है कि पाँच स्थावरकायों में वनस्पति ही एक ऐसा जीवनिकाय है, जिसका चैतन्य अन्य स्थावर जीवनिकायों से स्पष्टतर है। इसकी चेतनता प्रत्यक्ष दृष्टिगत होने से सहज स्वीकार्य है, जबकि शेष चार स्थावरकायों के प्रति श्रद्धा होना दुष्कर होता है। इसलिए उनका वर्णन पश्चात् किया गया है।
___ कतिपय लोग ऐसा मानते है कि इस जन्म में जीव जैसा होता है, वह अगले जन्म में भी वैसा ही जीवन धारण करता है। अर्थात् पुरुष-पुरुष रूप में तथा स्त्री-स्त्री रूप में उत्पन्न होती है। जिस प्रकार आम के बीज से आम का ही वृक्ष उत्पन्न होता है, बबूल का नहीं। इस तर्क का भी यहाँ खण्डन किया है।
शास्त्रकार कहते है 'सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा कम्मोवगा कम्मणियाणा कम्मगइया कम्मठिइया कम्मणा चेव विप्परियासमुति' अर्थात् समस्त प्राणी अपनेअपने विभिन्न कर्मानुसार ही गति, योनि, स्थिति आदि को प्राप्त करते है। जीव मात्र को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है तथापि पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से वे नाना योनियों में भटकते हुए दु:ख सहन करते है।
विवेकी साधक इन समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा तथा करूणा का भाव रखे। तथा जिस आहार से हिंसा होती है, ऐसा सावद्य आहार ग्रहण न करे। साधक प्रस्तुत आहार परिज्ञा अध्ययन से ज्ञ परिज्ञा द्वारा हेय-ज्ञेय-उपादेय को सम्यक्तया समझे तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा हेय (सावद्य) दोष से दूषित आहार का त्याग करे। जो संयम पालन में सदा यत्नशील है, आहार शुद्धि में सजग है, वही साधक निर्वाण को प्राप्त होता है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 169-171 ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 342/343 सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 376 वही वही अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 170 ब). सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 377 स). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 343-344
194 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org