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(रोम) से लिया जानेवाला आहार लोम आहार है । "
3. प्रक्षेप आहार कवल आदि के प्रक्षेप से लिया जाने वाला आहार प्रश्क्षेप आहार है। इसका संबंध क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से है। कवलाहार नियतकालिक होता है, सदा सर्वदा नहीं होता । पर्याप्तक जीव लोम आहार एवं प्रक्षेप आहार अर्थात् कवलाहारी होते है ।" एकेन्द्रिय जीवों, देवताओं तथा नारकीय जीवों के प्रक्षेप आहार नहीं होता। शेष संसारी जीवों के प्रक्षेप आहार होता है। 3 उत्तरकुरु तथा देवकुरु के निवासी तीन-तीन दिन के अन्तर से प्रक्षेप आहार करते है। संख्येयवर्षायुष्क वाले प्राणी भी निरन्तर प्रक्षेप आहार नहीं करते। उनके भी स्पर्श से निरन्तर आहार होता है।
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(1) प्रक्षेप आहार
कुछ आचार्य इन तीन प्रकार के आहारों की भिन्न व्याख्या करते है । " " जो आहार जिह्वा से ग्रहणकर स्थूल शरीर प्रक्षिप्त किया जाता है, वह प्रक्षेप आहार है। जो आहार घ्राण, चक्षु और कर्ण से ग्रहणकर धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, वह ओज आहार है ।
जो केवल स्पर्शन इन्द्रिय से ग्रहणकर धातु रूप में परिणत किया जाता है, वह लोम आहार है ।
इसी क्रम में नियुक्तिकार ने अनाहारक जीवों का भी कथन किया है। 15 निम्नोक्त चार अवस्थाओं में जीव आहार ग्रहण नहीं करता
(2) ओज आहार
(3) लोम आहार
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( 1 ) भवान्तर मे जाते समय वक्रगति (विग्रहगति) में रहा हुआ जीव आहार ग्रहण नहीं करता। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार " संसारी जीव विग्रहगति में एक या दो समय अनाहारक होता है।
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(2) केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे तथा पाँचवे समय में ।
(3) सादिक अनिधन - शैलेषी अवस्था से प्रारम्भ कर अनन्त काल तक । ( 4 ) सिद्धावस्था में ।
इन चार अवस्थाओं के अतिरिक्त समस्त अवस्थाओं में जीव आहार ग्रहण करता है।
स्थानांग सूत्र में आहार संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए हैं -1" ( 1 ) जठराग्नि के प्रदीप्त होने से (2) क्षुधा वेदनीय कर्मोदय से (3) आहार ज्ञान से तथा ( 4 ) आहार की चिन्ता से ।
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन /
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