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भाव आहार - सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों के वर्ण, गंध, रस आदि को अपनी बुद्धि से पृथक-पृथक् कर उनका (वर्णादि का) आहरण करना, भाव आहार है। आहार जिह्वेन्द्रिय का विषय है। आहार के मुख्य रस है- तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर ।'
आहारक प्राणी की अपेक्षा से भाव आहार तीन प्रकार का होता है - (1) ओज आहार (2) लोम आहार तथा (3) प्रक्षेप आहार ।
(1) ओज आहार - ओज अर्थात् शरीर। जो आहार शरीर से लिया जाता है, उसे ओज आहार कहते है। अपर्याप्तक अवस्था में तेजस तथा कार्मण शरीर से लिया जाने वाला आहार, जब तक अपर औदारिक तथा वैक्रिय शरीर की निष्यत्ति नहीं होती, ओज आहार कहलाता है।'
जीव अपने उत्पत्ति क्षेत्र में जाकर पहले तेजस तथा कार्मण शरीर से आहार ग्रहण करता है। उसके बाद जब तक उपयुक्त शरीर की निष्पत्ति नहीं होती, तब तक वह औदारिक मिश्र या वैक्रिय मिश्र शरीर से आहार ग्रहण करता है।
कुछ आचार्यों का मत है कि औदारिक आदि शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होने पर भी जीव जब तक इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा तथा मन: पर्याप्ति से पर्याप्त नहीं होता, तब तक मात्र शरीर पिण्ड से ग्रहण किया जाने वाला आहार भी ओज आहार ही कहलाता है।'
ओज आहार लेने वाले सभी जीव अपर्याप्तक होते है, क्योंकि उनके इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन:पर्याप्ति नहीं होती है। शरीर पर्याप्ति का निर्माण आहार पर्याप्ति के होने पर ही होता है।
__ (2) लोम आहार - नियुक्तिकार' के अनुसार पर्याप्तक जीव लोम आहार ग्रहण करते है। चूर्णिकार ने त्वचा और स्पर्श से आहार लेना लोम आहार माना है। जैसे गर्मी से उत्तप्त प्राणी छाया में जाकर शीतल पुद्गलों को शरीर के समस्त रोम कूपों से ग्रहण करता है तथा शीतल वायु से अपने आप को आश्वस्त करता है, पँखे से हवा लेता है, स्नान करता हुआ पानी के शीतल पुद्गलों को रोम कूपों से ग्रहण करता है, यह सारा लोम आहार है। शीत से कम्पायमान अर्धमृत मनुष्य भी अग्नि के ताप से स्वस्थ हो जाता है। वायु आदि के स्पर्श से होने वाला यह लोमाहार निरन्तर होता रहता है किन्तु यह चर्मचक्षुओं से दिखायी नहीं देता। यह प्रतिसमयवर्ती है।
वृत्तिकार के अनुसार शरीर पर्याप्ति के उत्तरकाल में बाह्य त्वचा और लोम 190 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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