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विशल्यकरणी - शल्य को निकालने वाली विद्या । औषधिज्ञान । प्रक्रामणी - भूत दूर करने वाली विद्या ।
अन्तर्धान
अदृश्य होने की विद्या ।
62.
63.
64.
उन्नीसवें सूत्र में चौदह प्रकार के क्रूर कर्म बतलाये है। इनके अध्ययन से तात्कालीन समाज व्यवस्था में होने वाले आचरणों का स्पष्ट निर्देश मिलता
है।
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जो महापापी व्यक्ति अपने लिये, जाति, घर, परिवार या परिचित के निमित्त 1. आनुगायिक - (सहगामी) 2. उपचरक - (सेवक) 3. प्रातिपथिक - (बडमार) 4. सन्धिच्छेद - (सेंध लगाने वाला) 5. ग्रन्थिच्छेदक - (जेब कतरा ) 6. औरभ्रिक - (भेड़ का वध करने वाला) 7. शौकरिक - ( सूअर को मारने वाला) 8. वागुरिक - (शिकारी) 9. चीडीमार 10. मात्स्यिक - (मछुआरा) 11. गोपालक · (ग्वाला) 12. गोघातक 13. श्वपालक ( कुत्तों को पालने वाला) 14. शौवनिक - शिकारी कुत्तों से शिकार करने वाला होता है, वह विपुल कर्मों का बन्ध कर निम्नतम गति में जाता है।
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यहाँ मनुष्य का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है - (1) धर्मपक्ष में स्थित (2) अधर्मपक्ष में स्थित तथा (3) मिश्र ( धर्म-अधर्म) पक्ष में स्थित । अधर्म पक्ष के विकल्पों का वर्णन करने के पश्चात् धर्म पक्ष में स्थित मुनि की वृत्ति - प्रवृत्ति का सुन्दर विश्लेषण करते हुए उसे अनेक श्रेष्ठ उपमाओं से उपमित किया गया है । जो गृहस्थ महारम्भी, महापरिग्रही है, वे अधर्म पक्ष स्थित है। तापस, परिव्राजक आदि मिश्र - (धर्म-अधर्म) पक्ष में स्थित होते
है ।
अन्त में इन तीनों पक्षों का, धर्म तथा अधर्म इन दों पक्षों में समावेश कर दिया गया है। अधर्म स्थान में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी इन चार कोटि के प्रावादुकों का भी समावेश हो जाता है, जो 363 भेद वाले है। ये सभी अपने-अपने मत के आग्रही, एकान्तवादी तथा हिंसा का समर्थन करने वाले होने से धर्मपक्ष से रहित है ।
यहाँ शास्त्रकार ने 363 मतवादियों को अधर्म स्थानीय सिद्ध करने के लिये एक दृष्टान्त देकर अहिंसा धर्म की प्रधानता सिद्ध की है। जो धर्म अहिंसा से युक्त है, वही कल्याणकारी है, अपवर्ग को देने वाला है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' समस्त प्राणियों को अपने समान देखना ही अहिंसा की सही व्याख्या है | अहिंसा
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 187
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