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________________ का सुन्दर निदर्शन शास्त्रकार ने इस प्रकार किया है- किसी स्थान पर अनेक प्रावादुक समवसृत है। एक व्यक्ति जलते हुये अंगारों से भरे पात्र को संडासी से पकड़ कर लाता है और एक-एक से कहता है - 'प्रत्येक प्रावादुक अंगारों से भरे इस लोह पात्र को अपने-अपने हाथ में थामे रखे।' वह उस पात्र को उनकी ओर बढ़ाता है। वे सभी अपना हाथ पीछे खींच लेते है। वह पूछता है - आप हाथ पीछे क्यों खींच रहे है ? प्रावादुक कहते है - क्या हमारे हाथ नहीं जल जायेंगे ? तब क्या हमें पीड़ा नहीं होगी? वह व्यक्ति कहता है - जैसे तुम्हें सुख प्रिय है और दु:ख अप्रिय, उसी प्रकार जगत् के समस्त प्राणी सुख चाहते है, जीना चाहते है। कोई दु:ख नहीं चाहता, मरना नहीं चाहता। दु:ख सभी को अकान्त और अप्रिय है। यही आत्मतुला है, यही प्रमाण है, यही आत्मोपम्य का सिद्धान्त है। इस अध्ययन का सार-संक्षेप यही है कि बारह क्रियाओं में प्रवृत्ति करने वाला कर्म बन्धनों में जकड़कर संसार भ्रमण को बढ़ाता है जबकि तेहरवी क्रिया मैं गतिमान आत्मा संसार का उच्छेद कर सिद्धि को प्राप्त करता है। सन्दर्भ एवं टिप्पणी (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 165 (ब) सूत्रकृतांग चूर्णि - पृ.-336 सूत्रकृतांग चूर्णि - पृ.-336 ठाणं - 2/2/37 तत्त्वार्थ सूत्र - 6/6 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 304 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 166 (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 304/305 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 308 वही - 309 आवश्यक नियुक्ति, अवचूर्णि भाग - 2, पृ. 136 समवायांग, समवाय 29 का पहला टिप्पण, पृ. - 154-155 काश्यप संहिता - रेवती कल्पाध्याय-प्राणाचार्य-पृ. - 447, टि.नं. 4 में उद्धृत। 188 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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