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(त्रिसमयात्मक) कर्म का बन्ध करते है, इसलिये 13वें क्रियास्थान को ऐर्यापथिक कहा गया है। इस प्रकार पूर्वोक्त 12 क्रियास्थानों को सम्यक् रूप से जानकर साधक उनका त्याग करें तथा 13वें क्रियास्थान को प्राप्त करे या उसे पाने की योग्यता अर्जित करें।
प्रस्तुत अध्ययन के 18वें सूत्र में पापश्रुत अध्ययनों के प्रसंग में निमित्त शास्त्र, लक्षण शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र और मन्त्र शास्त्र की अनेक जानकारियाँ दी गयी है। सूत्रकार ने 64 प्रकार के पापश्रुत का उल्लेख भी किया है। ऐसा ज्ञान, जिससे पाप का बन्ध होता हो अथवा जो शास्त्र पाप का उपादान होता है, वह पापश्रुत कहा जाता है। समवायांग, आवश्यक नियुक्ति आदि में उनतीस प्रकार के 'पापश्रुत प्रसंग' निर्दिष्ट है।'
कोरा ज्ञान पाप का बन्ध नहीं कराता। पाप के बन्ध में ज्ञान का प्रयोग ही कारण बनता है। जो व्यक्ति इन सारी विद्याओं का प्रयोग भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिये करता है, वह पापकर्म का बन्ध करता है तथा पापपूर्ण स्थानों में उत्पन्न होता है।
प्रस्तुत अध्ययन में उल्लिखित 64 पापश्रुत इस प्रकार है - 1. भौम - तुफान, भूकम्प आदि का ज्ञान कराने वाला शास्त्र। 2. उत्पात - उल्कापात आदि प्राकृतिक घटनाओं की व्याख्या
करने वाला शास्त्र। स्वप्न - गज, वृषभ आदि तथा अन्यान्य दृश्यों के आधार पर शुभ-अशुभ बताने वाला शास्त्र। अन्तरिक्ष - ज्योतिष शास्त्र । अंग - आँख, भुजा आदि फड़कने से शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र। स्वर - स्वरशास्त्र। लक्षण - यव, मत्स्य, पद्म, शंख, चक्र आदि चिह्न अथवा हस्तरेखा के आधार पर शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र। ___ व्यंजन - तिल आदि चिह्नों के आधार पर शुभाशुभ बताने वाला
शास्त्र।
स्त्री लक्षण शास्त्र। . 10. पुरुष लक्षण शास्त्र । 184 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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