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की क्रिया के निमित्त भारी पापकर्म का बन्ध होता है अत: इसे मित्रदोष-प्रत्ययिक कहा गया है।
11. मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान - जो व्यक्ति दिखने में सभ्य, शिष्ट तथा सरल व सदाचारी मालूम होते है, परन्तु अन्दर से उतने ही खोखले, छिपकर पापाचार करनेवाले तथा उल्लू के समान अत्यन्त तुच्छ होने पर भी अपने आपको विशिष्ट पर्वत के समान भारी समझते है। ऐसे मायावी पुरुष अनेक प्रकार की अनर्थकारी प्रवृत्तियों को करने वाले होते है। वे इहलोक तथा परलोक में दुष्फल पाते हये भी कुटिल स्वभाव से मुक्त नहीं हो पाते है। ऐसे मायी पुरूष माया युक्त क्रियाओं के कारण पापकर्म का बंध करते रहते है । अत: इस क्रियास्थान के मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है |
12. लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान - शास्त्रकार ने इस क्रियास्थान का स्वरूप बतलाते हुये आरण्यक तापसों की चर्या को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। जो अधिकांशत: संयमी नहीं है, प्राणातिपात- मृषावाद से विरत नहीं है तथा जंगल में, पर्णकुटिया में निवास करते हुये कन्दमूल, पत्रफूल द्वारा जीवन निर्वाह करते है, स्त्रीभोगों में तथा विषय कषायों में गृद्ध, आसक्त हैं, ऐसे अन्यतीर्थिक पाँच, छह या दस वर्ष तक विषय भोगों का सेवन करते हुये मृत्यु को प्राप्त होकर किल्विषी देव बनते है। वहाँ से च्यवकर बकरे की तरह मूक तथा जन्मान्ध होते हैं। इस प्रकार की विषयलोलुपता की क्रिया से लोभप्रत्ययिक पापकर्म का बन्ध होने से इस क्रियारथान को लोभप्रत्यायिक क्रियास्थान कहा गया है।
13. ऐर्यापथिक क्रियास्थान - पूर्वोक्त 1 2 क्रियास्थान अधर्महतुक प्रवृत्ति के है। परन्तु यह क्रियारथान धर्महतुक प्रवृत्ति का है। वीतराग छद्मस्थ तथा वीतरागी केवली की सयोगी अवस्था तक यही क्रियास्थान होता है। जो साधक अपने आत्मभाव में स्थित है, परभावों से मुक्त हैं, पाँच समिति तथा त्रिगुप्ति से युक्त है, जितेन्द्रिय, ब्रह्मगुप्ति का धारक तथा जयणा या उपयोग पूर्वक समस्त क्रियाएँ सम्पन्न करता है, यहाँ तक कि पक्ष्म-निक्षेप भी उपयोग सहित करता है, ऐसा सुसंयत साधु सूक्ष्म ऐपिथिकी क्रिया प्राप्त करता है। इस क्रिया का प्रथम समय बंध तथा स्पर्श होता है, द्वितीय समय में वेदन (अनुभव), व तृतीय समय में निर्जरा होती है। इस प्रकार वह क्रिया क्रमश: बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित तथा निर्जीण हो जाती है। चूँकि वीतराग पुरुष संयोगावस्था में इस क्रिया के कारण असावद्य
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 183
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