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________________ उनका त्याग कर दे तथा 13वें धर्म क्रियास्थान को मोक्ष की प्रवृत्ति करने हेतु धारण करें, यही इस अध्ययन का उद्देश्य है। । शास्त्रकार ने अध्ययन के प्रारम्भ में तेरह क्रियास्थानों का उल्लेख किया है - (1) अर्थदण्ड (2) अनर्थदण्ड (3) हिंसा दण्ड (4) अकस्मात् दण्ड (5) दृष्टि विपर्यास दण्ड (6) मृषा प्रत्ययिक (7) अदत्तादान प्रत्ययिक (8) अध्यात्म प्रत्ययिक (9) मान प्रत्ययिक (10) मित्रद्वेष प्रत्ययिक (11) माया प्रत्ययिक (12) लोभ प्रत्ययिक (13) ईऱ्या प्रत्ययिक। संसार के समस्त प्राणी इन 13 क्रियास्थानों में प्रवर्त्तमान रहते है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई क्रियास्थान नहीं है, जहाँ कर्मबन्ध होता हो। इस अध्ययन में इन समस्त क्रिया स्थानों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है, जो क्रमश: इस प्रकार है - 1. अर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान- कोई पुरुष अपने लिये, अपने ज्ञातिजनों, घर-परिवार अथवा मित्रजनों के लिये त्रस अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करता है, करवाता है या अनुमोदन करता है, वह अर्थदण्ड है। ___2 अनर्थदण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान- बिना किसी प्रयोजन के, केवल अपने मनोरंजन, कौतुक, क्रूर आदत से प्रेरित होकर किसी भी त्रस या स्थावर जीव की किसी भी रूप में की जाने वाली हिंसा अनर्थ दण्ड प्रत्ययिक है। 3. हिंसादण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान- अमुक प्राणियों ने मेरे किसी सम्बन्धी को मारा था, मारा है अथवा मरवाया है, ऐसा समझकर जो मनुष्य उन्हें मारने की प्रवृत्ति करता है, वह हिंसा दण्ड प्रत्ययिक कहलाती है। कई व्यक्ति अपने मरण की आशंका से प्राणियों को खत्म कर देते है कि भविष्य में यह मुझे मार डालेगा। जैसे कंस ने देवकी पुत्रों को मरवा दिया था। इसी प्रकार सिंह, सर्पादि प्राणियों का भी इसलिये वध कर डालते है कि ये जिन्दा रहने पर किसी न किसी को मार डालेंगे। कुछ मनुष्य अपने सम्बन्धी के घात से कुद्ध होकर भी सम्बन्धित व्यक्ति को मार डालते है, जैसे परशुराम ने अपने पिता की हत्या से कुद्ध होकर कार्तवीर्य को मार डाला था।' . 4. अकस्मात्दण्ड प्रत्ययिक क्रियास्थान- लक्षित प्राणी को घात करने के इरादे से चलाये हुए शस्त्र से अन्य किसी प्राणी का घात हो जाना अकस्मात् दण्ड है। क्योंकि यहाँ घातक पुरुष का आशय उस प्राणी के घात का न होने पर भी उसका घात हो जाता है। जैसे किसी हरिण को मारने के लक्ष्य से चलाया सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 181 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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