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2. उपाय क्रिया
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3. करणीय क्रिया
4. समुदान क्रिया
द्रव्य की निष्पत्ति से होने वाली उपायात्मक क्रिया । जिनसे घटपटादि पदार्थों का निर्माण होता है, उन उपायों का प्रयोग उपाय क्रिया है । जो वस्तु जिस प्रकार से की जाती है, उसे उसी प्रकार से करना करणीय क्रिया है । जैसे घट का निर्माण मृत्पिण्ड से ही सम्भव है, पाषाणादि से नहीं ।
5. ईर्य्यापथ क्रिया - उपशान्तमोह से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक होने वाली क्रिया । यह तीन समय की स्थितिवाली होती है - प्रथम समय में बन्ध, दूसरे में संवेदन और तीसरे में निर्जरण । यह वीतराग अवस्था की क्रिया है ।
8. मिथ्यात्व क्रिया
6. सम्यक्त्व क्रिया - जिस क्रिया से जीव सम्यग्दर्शन के योग्य 77 कर्म प्रकृतियों को बांधता है।
7. सम्यङ् मिथ्यात्व क्रिया - जिस क्रिया से जीव सम्यग्मिथ्यात्व योग्य 74 कर्म प्रकृतियाँ बांधता है।
जिस क्रिया से जीव तीर्थंकर नाम कर्म तथा
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समुदाय के रूप में जिस क्रिया को करके जीव प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश रूप से अपने अन्दर स्थापित करता है, वह समुदान क्रिया है । यह क्रिया असंयत, संयत, अप्रमत्त संयत, सकषाय व्यक्ति के होती है।
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आहारकद्रय को छोड़कर शेष 117 कर्म प्रकृतियों को बांधता है।
सामान्यतया यह माना जाता है कि क्रिया से कर्मबन्ध होता है । परन्तु प्रस्तुत अध्ययन में जो क्रियास्थान बताये गये है, उनसे कई क्रियावानों के कर्मबन्ध होते है, तो कई क्रियावान् कर्ममुक्त होते है। इसलिये प्रस्तुत अध्ययन में दो प्रकार के क्रियास्थान बताये गये है- धर्म क्रियास्थान तथा अधर्म क्रियास्थान । अधर्म क्रियास्थान के बारह प्रकार है तथा तेरहवाँ धर्म क्रियास्थान है। कर्मबन्ध से मुक्त होने के लिये साधक प्रथमत: बारह प्रकार के अधर्म क्रियास्थानों को जानकर
180 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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