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________________ अभाव, कार्यक्रमों की भरमार; फिर भी उसका धैर्य बरकरार था। मेरे लिये किसी भी कार्य को इतने लम्बे समय तक चलाना कठिन होता है। इस विषय पर कई बार कहना भी पड़ा कि वह अपने हाथ में लिये हुए शोधकार्य को जल्दी से संपन्न कर ले, भले ही उसमें गहराई कम हो; पर वह मेरी इस बात पर सहमत नहीं हुई और न ही उसने इस पर समझौता ही किया। उसका दृढ़-संकल्प था कि वह शोध कार्य गहराई से ही करेगी और आखिर गुजरात से प्रारंभ हुई उसकी शोधयात्रा महाराष्ट्र होती हुई कर्णाटक में संपन्न हुई। यद्यपि उसकी शोधयात्रा अवश्य संपन्न हो गयी, पर मेरा सपना अधूरा है। बहुत प्रारंभ से मेरी रूचि थी कि हम जिस गुरू परंपरा से जुड़े हैं, उस परंपरा के आद्य प्रवर्तक, न्याय के शिखर पुरूष श्री जिनेश्वरसूरि की रचना पंचलिंगी प्रकरण पर कुछ कार्य हो। संयोग और परिस्थितियाँ अनुकूल न रहीं, अतः न चाहते हुए भी विषय का परिवर्तन करना पड़ा; परंतु संतोष है कि इस विषय पर अपनी क्षमता का भरपूर उपयोग करते हुए उसने संपूर्ण न्याय किया है। सूत्रकृतांग सूत्र परमात्मा की मूल वाणी होने के साथ द्वितीय आगम के रूप में स्थापित है; और एक आगम पर शोध करने का अर्थ है, उसे पढ़ने के साथ-साथ अन्य आगमों का भी समुचित अध्ययन करना। साध्वी नीलांजना ने इन आगमों के साथ आगमेतर साहित्य का भी अध्ययन करके अपनी अध्ययनप्रियता एवं स्वाध्याय रूचि को अभिव्यक्त किया है। शोध कार्य से प्रारंभ हुई उसकी लेखन यात्रा यहीं विश्रांत न होकर अगणित ग्रंथ निर्माण करती हुई उत्तरोत्तर विकसित, परिष्कृत हो, साथ ही वह अपने मुख्य लक्ष्य कषाय शुद्धि, आत्म शुद्धि करके शुद्धत्व-बुद्धत्व की गरिमा को उपलब्ध करे, यही कामना है। नियाm - साध्वी (डॉ.) विद्युत्प्रभा .xii Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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