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________________ श्रेयोवाक् अपनी प्रिय अनुजा-शिष्या साध्वी डॉ. नीलांजना द्वारा प्रस्तुत शोध ग्रंथ के प्रकाशन के अवसर पर मेरा मन प्रमुदित होना एक सहज प्रक्रिया है। वह अपने छह माह की शिशु अवस्था से ही मेरे व्यावहारिक जीवन की ही नहीं, मेरे भाव हृदय की एक अत्यंत सुकोमल अनुभूति के साथ ही मेरे प्राणों का अविभाज्य अंग रही है। मेरे हाथ शिशु अवस्था में उसका झूला बने तो यौवन की दहलीज पर बढ़ते उसके कदमों को मेरा अनुशासन मिला। उसने इन दोनों ही रूपों को हृदय की गहराई से आत्मसात् किया। नि:संदेह मैं उसके इस समग्र समर्पण से अभिभूत हूँ। बचपन के दस साल की अवधि के अतिरिक्त वह मुझसे व्यावहारिक एवं हार्दिक, दोनों ही स्तर पर अभिन्न रही है। उसके बारे में मैं नि:संकोच कह सकती हूँ कि वह जितनी तेजस्विनी है, उतनी ही सकोमल भी है। वह जितनी प्रतिभासंपन्न है, उतनी ही विनम्र भी! जितनी तार्किक एवं ओजस्विनी है, उतनी ही भावुक भी! वह जिस कार्य से जुड़ती है, उसे निष्ठा से डूबकर संपन्न किये बगैर निश्चित नहीं होती। जब वह अपनी उम्र के द्वितीय दशक के तृतीय वर्ष के प्रारंभ में मेरे पास आयी थी; उसकी तीव्र प्रतिभा को देखते हुए विद्यालय प्रशासन ने सातवीं कक्षा से सीधे दसवीं कक्षा में पहुंचा दिया था; और उसने भी कठोर परिश्रम की बदौलत अत्यल्प अवधि के बावजूद परीक्षा देकर सफल होने के साथ-साथ द्वितीय श्रेणी भी प्राप्त की थी। तब से प्रारंभ हुई उसकी व्यावहारिक व तात्विक शिक्षा यात्रा आज अनेक सामुदायिक व व्यावहारिक अवरोधों को पार करते हुए आखिर अपनी मंजिल तक पहुँच ही गयी है। उसकी शोधयात्रा लम्बी चली। विषय पर भी खूब ऊहापोह चला। विषय का चयन होने के बाद फिर एक स्थान पर रहने की व्यवस्था का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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