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( सबके प्रति विनम्र व्यवहार वाला), दान्त (इन्द्रिय तथा मन को वश में रखने वाला), शरीर में ममत्व से रहित, उपसर्ग जेता, आध्यात्मिक वृत्ति से युक्त, स्थितात्मा तथा परदत्तभोजी है, वह भिक्षु कहलाता है। यहाँ भिक्षु का अर्थ भिक्षाजीवी से अवश्य है परन्तु भिक्षा पर जीने वाले तप-त्याग - संयम से रहित हृष्ट-पुष्ट भिखारी से नहीं है । यहाँ वह भिक्षु विवक्षित है, जो द्रव्य का संचय नहीं करता, भोजन न पकाता है, न पकवाता है तथा बिना दिया हुआ अथवा उसके लिये बनाया गया आहार भी जो ग्रहण नहीं करता । इसलिये उसे यहाँ परदत्तभोजी कहा गया है। कर्मों का भेदन करने वाला भी भिक्षु है, जो दूसरों के द्वारा दिये हुए आहार से संयम, तप, त्याग तथा स्वपर कल्याण में रत रहता है ।
इस अध्याय के अन्त में निर्ग्रन्थ की व्याख्या की गयी है। जो साधक एकाकी, एकविद् (एकमात्र आत्मा को जानने वाला), बुद्ध (तत्त्वज्ञ), सुसंयत, पूजा प्रतिष्ठादि से मुक्त तथा बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ से रहित है, वही निर्ग्रन्थ है ।
प्रथम श्रुतस्कन्ध की समाप्ति के साथ अध्ययन का उपसंहार करते हुये शास्त्रकार कहते है कि यहाँ जो भी कहा गया है, वह सर्वज्ञ महापुरुषों की वाणी के अनुसार ही है । अत: सुसाधक के लिये वही हितकारी है क्योंकि आप्त पुरुषों के वचन अन्यथा नहीं होते है ।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
(अ) सूत्रकृतांग नियुक्तिगाथा - 141 : 'गाहासोलसणामं अज्झयणमिणं ववदिसंति' (ब) सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 304
(स) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 262 पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 293 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 262
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172 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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