SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गेय पाठ हो, 5. अथवा जिसमें बहुत सा अर्थ समूह पिण्डीकृत अर्थात् - एकत्र करके समाविष्ट किया गया हो, वह गाथा है । " इससे पूर्वोक्तपन्द्रह अध्ययन पद्यात्मक शैली में निर्मित है, परन्तु यह अध्ययन गद्यात्मक शैली में रचित होने पर भी गाथा नाम से अभिहित है। इसके पीछे दो कारण प्रतीत होते है - या तो यह गद्यात्मक पाठ गेय अर्थात् गाया जाता है, अथवा इसमें पूर्वोक्त अध्ययन के अर्थसमूह को एकत्र करके समाविष्ट किया गया है, इन कारणों से भी इसे गाथा अध्ययन कहा जाता होगा । प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण, माहण, भिक्षु तथा निर्ग्रन्थ आदि के स्वरूप का पृथक् -2 विश्लेषण करके अणगार के गुणों का प्रशंसात्मक प्रतिपादन है । शास्त्रकार अध्ययन के प्रारम्भ में कहते है कि जो पूर्वोक्त अध्ययनों में कहे गये साधक के गुणों से युक्त है, भव्य है, दान्त है तथा जिसने शरीर के ममत्व का त्याग कर लिया है, वह माहन (ब्राह्मण), श्रमण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ है । आगे क्रमश: इनके स्वरूप की मीमांसा की गयी है। मा+हन इन दो पदों से निर्मित मान का शाब्दिक अर्थ है - नहीं मारो अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। जो स्वयं किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता तथा अन्यों को भी ऐसा ही उपदेश देता है, वह माहन है। पूर्वोक्त अध्ययनों में उपदिष्ट आचरण 'युक्त द्रव्य हिंसा तथा भाव हिंसा रूप राग-द्वेष, कलह आदि से विरत, संयम में रूचि-भाव तथा असंयम में अरूचि भाव वाला, पाँच समिति - तीन गुप्ति से युक्त, क्रोध - अभिमान से मुक्त है, वही गुणसम्पन्न साधक माहन है । - इसी क्रम में श्रमण के स्वरूप की व्याख्या की गयी है। जो साधक अनिश्रित (किसी बाह्य पदार्थ में आसक्त अथवा आश्रित न होना), अनिदान (सावद्य कर्म, कषाय, परिग्रहादि अनुष्ठान, जिनसे कर्मबंध का ग्रहण होता है ), अतिपात्(प्राणिघात, मृषावाद आदि से रहित है) तथा दान्त एवं भव्य है, वह श्रमण है । समण शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनते हैं। - 1. श्रमण 2. शमन अर्थात् जो स्वयं मोक्ष के लिये श्रम, तपस्यादि करता है । कषायों को उपशान्त करता है अथवा इन्द्रियों के विषयों को शान्त करता है । - 3. समन जो शत्रु-मित्र आदि प्राणिमात्र पर समभाव रखता है । उपरोक्त व्याख्या में भी ये तीनों भाव स्पष्ट मुखरित होते है । tata (गुरु के प्रति विनयी), अवनत (दीन भावों से रहित), नामक सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 171 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy