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वैसा अन्य दर्शनों (बौद्ध, सांख्य, न्याय) में नहीं है। सर्वज्ञ ने आगमादि में जीवादि पदार्थों का जो सम्यक् कथन किया है, वही परम सत्य तथा सुभाषित है।
__यहाँ कई अन्यदर्शनी सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर भी आक्षेप लगाते है तथा अपने-अपने मत के प्रणेता को ही सर्वज्ञ मानते है। शास्त्रकार ने उन आक्षेपों का परिहार किया है। वृत्तिकार ने भी विस्तार से इसका विवेचन किया है, जिसका उल्लेख हम दार्शनिक विश्लेषण में आगे करेंगे।
यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि तीर्थंकर या सर्वज्ञ का ज्ञान इसलिये सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि वे वस्तु के अनन्त धर्मों को युगपत् जानते है। वह ज्ञान अबाधित तथा अविरूद्ध है। इसलिये सत्य के प्रतिपादक सर्वज्ञ वीतराग ही है, जिनकी आत्मा परम शुद्धता को प्राप्त कर संसार समुद्र को पार कर चुकी है।
लोक में जो मेधावी पाप कर्मों को जानता है, वह सभी बन्धनों को तोड़ देता है। वह नये कर्मबन्ध भी नहीं करता, इसलिये वह न जन्म पाता है, न मृत्यु को प्राप्त करता है। - यहाँ शास्त्रकार ने अवतारवाद पर भी प्रहार किया है। कुछ दार्शनिकों की यह मान्यता है, जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब धर्म की उन्नति के लिये महापुरुष पुन: इस संसार में लौट आते है परन्तु यह कथन न युक्तिसंगत है, न ही सत्य है। जीव अष्ट कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करने के पश्चात् अक्रिय हो जाता है। संसार में शरीर धारण करने का कोई भी कारण विद्यमान न होने से कार्य रूप जन्म कैसे सम्भव है ? अत: नवीन कर्मबन्ध से रहित आत्मा पुनः जन्म-मरण की क्रिया नहीं करता।
आगे की गाथाओं में महावीरता की परिभाषा दी गई है कि जिसके पूर्वकर्म शेष नहीं है, जो स्त्रियों के आसंग से मुक्त है, वह संसार के परिभ्रमण से मुक्त हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है। परन्तु यह कृतकृत्यता विरले मनुष्यों को ही प्राप्त होती है। जिसके कुछ कर्म शेष है, वे सौधर्म आदि देव बनते है। मोक्ष की प्राप्ति भी मनुष्य गति से भिन्न गति के जीवों को नहीं होती। यहाँ कुछ अन्यतीर्थिकों की मान्यता है कि देव ही समस्त दु:खों का अन्त करते है। इसके विपरीत आहेत मत यह कहता है कि यह सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्य गतियों में परिणाम शुद्धि नहीं होती तथा धर्माराधना का भी अभाव ही होता है। मनुष्य से भिन्न गतियों में धर्म श्रवणरूप अभ्युदय मिलना तथा संबोधि प्राप्त होना दुर्लभ है, तो मोक्ष प्राप्ति तो बहुत दूर की बात है। अत: पण्डित साधक इस जन्म
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 169
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