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विभज्यवाद का दूसरा अर्थ है - अनेकान्तवाद । जहाँ जैसा उपयुक्त्त हो, वहाँ अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे । अमुक नित्य है या अनित्य ? ऐसा प्रश्न करने पर अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, अमुक अपेक्षा से यह अनित्य है - इस प्रकार उसको सिद्ध करे ।
वृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किए हैं1. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद । 2. स्याद्वाद।
3. अर्थों का सम्यग विभाजन करने वाला वाद । जैसे - द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद । सभी पदार्थों का अस्तित्व अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से है । पर द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से नहीं है।'
बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद की अनेक स्थलों पर चर्चा उपलब्ध होती है । विभज्य के दो अर्थ हैं -
विभज्य - विश्लेषणपूर्वक कहना । विभज्य - संक्षेप में विस्तार करना ।' बुद्ध ने स्वयं को विभज्यवाद का निरूपक कहा है ।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी (अ). सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 127-131 (ब). सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 241 उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा - 334-337 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 128 (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 241 प्राकृत व्याकरण - 8/1/15 अ) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 234 ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 249 सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 235 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 250 Early Budhist theory of knowledge, Page 280 वही, पृ. - 293
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 167
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