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________________ शास्त्र, गुरु या गुणी के गुण को न छिपाये । अपनी बुद्धि पर तनिक भी अहंकार 7 न करे, न किसी को आशीर्वादात्मक वचन कहे । विविध प्रकार के मंत्र-तंत्र प्रयोग द्वारा अपने संयम को खोखला और दूषित न करे । सत्य किन्तु अप्रिय वचनों का प्रयोग न करे । धर्मोपदेश में स्याद्वाद, सापेक्षवाद, विभज्यवाद द्वारा पदार्थों की व्याख्या करे । अर्थात् नय, निक्षेपादि द्वारा अलग-अलग विश्लेषण करे। इस व्याख्या को कोई विपरीत ग्रहण करे तो उसे जड़बुद्धि या मूर्ख कहकर झिडके नहीं, उसका अपमान और तिरस्कार भी न करे । प्रत्येक वचन बोलते समय स्यादवाद को दृष्टि में रखें। परमात्मा या सिद्धान्त के विरूद्ध बात न करे। गुरु से भी भलीभाँति समझने के बाद ही दूसरों को समझायें । जो इन समस्त सूत्रों को ध्यान में रखता हुआ भाषा समिति का उपयोग करता है तथा सूत्र, धर्म को सम्यक् जानता हुआ उत्सर्ग, अपवाद, हेतु ग्राह्य, आज्ञा ग्राह्य, स्व-समय पर समय आदि शास्त्र वाक्यों को यथायोग्य प्रतिपादित करता है, वही शास्त्र का अर्थ तथा उसके अनुसार आचरण करने में कुशल होता है एवं वही ग्रन्थमुक्त साधक सर्वज्ञोक्त समाधि की व्याख्या कर सकता है। प्रस्तुत अध्ययन की 19वीं गाथा में 'ण याऽऽसियावाय वियागरेज्जा' पद है। जिसका अर्थ है- भिक्षु किसी को आशीर्वाद न दे । यहाँ आशीष शब्द का आसिया शब्द हुआ है- जैसे 'सरित्' का प्राकृत में 'सरिआ' रूप होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने इसके लिये स्पष्ट नियम बताया है 'स्त्रियामातविद्युतः' अर्थात् स्त्रीलिंगवाची शब्दों में विद्युत् शब्द को छोड़कर आत् होता है।' आसिया भी इसी प्रकार बना है । परन्तु डॉ. ए. एन. उपाध्ये इसका अर्थ 'अस्याद्वाद' ऐसा करते है। अर्थात् अस्यादवाद युक्त वचन का प्रयोग साधु न करे । पर यह अर्थ ठीक नहीं है । इस गाथा में न स्याद्वाद का उल्लेख है, न कोई ऐसा प्रसंग है । चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने भी इस पद का अर्थ आशीर्वाद के निषेध के रूप में किया है । ' 22 वें श्लोक में 'विभज्जवायं च वियागरेज्जा' ऐसा निर्देश है। इसका अर्थ है - मुनि विभज्यवाद के आधार पर वचन प्रयोग करें । चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं - भजनीवाद या अनेकान्तवाद । तत्वार्थ के प्रति अशंकित न होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे- मैं इस विषय में ऐसा मानता हूँ । विशेष जानकारी के लिए अन्यत्र भी पूछना चाहिए। 166 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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