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________________ शास्त्रकार अध्ययन के प्रारम्भ में साधक के लिये गुरुकुलवास या गुरुसन्निधि का महत्त्व बताते हुये कहते है कि ग्रन्थ ( बाह्याभ्यन्तर परिग्रह) त्यागी मुनि गुरु द्वारा अनुशासित होता हुआ ग्रहण तथा आसेवन दोनों शिक्षा का अभ्यास करे । ग्रहण अर्थात् शास्त्रों का अध्ययन करना एवं तदनुरूप आचरण करना आसेवन है। गुरुकुलवास न करने वाला अपरिपक्व साधक उसी प्रकार संयम से होकर दु:ख पाता है, जैसे पक्षी का नवजात बच्चा उड़ने में असमर्थ होने से दंक आदि माँसाहारी पक्षियों द्वारा मार दिया जाता है । अत: आशुप्रज्ञ साधक स्वच्छन्द आचरण तथा एकाकी विचरण न करे । गीतार्थ गुरु की निश्रा में रहने वाला, गुरु के आदेश - निर्देश में अनुरक्त, सावद्य अनुष्ठानों से विरत, संयम तथा विनय पालन में उद्यत मुनि विषय कषाय रूप रोगों से उसी प्रकार स्वस्थ (आत्मस्थ ) हो जाता है, जैसे- रूग्ण, व्याधिग्रस्त व्यक्ति वैद्य की देख-रेख में औषध तथा पथ्यग्रहण द्वारा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है। अतः साधु अनेक गुणवर्धक गुरुकुल वास में समाधि प्राप्त करे । गुरु द्वारा अनुशासित शिष्य पंच महाव्रत, पंच समितियों और तीन गुप्तियों के पालन में परिपक्व तथा अनुभवी होकर अन्यों को भी पालन का उपदेश देता है । गाथाओं के क्रम में यह भी बताया गया है कि वह किस प्रकार शिक्षा ग्रहण करे । गुरुकुलवासी मुनि निद्रा, प्रमाद न करे । प्रमादवश संयम में स्खलना हुई हो और अन्य लघु, वृद्ध या समवयस्क द्वारा वह भूल बतायी जाये तो उन पर वह क्रुद्ध न हो बल्कि अपनी त्रुटि को सुधारने का प्रयास करे तथा उनकी शिक्षा को उत्थान का पाथेय समझकर, उनको उपकारी मानकर उनका आदरसत्कार करे। ज्ञानोपदेष्टा आचार्य की सेवाभक्ति करे । प्राणियों की हिंसा न करे । प्रत्येक प्रवृत्ति उपयोग एवं जयणापूर्वक सम्पादित करे । इस प्रकार समिति तथा गुप्ति में स्थित, समाधि प्राप्त साधक को शान्ति तथा समस्त कर्मक्षय रूप लाभ प्राप्त होता है। उसके जीवन का सर्वांगीण विकास भी यहीं होता है। अध्ययन समाप्ति के दौर में शास्त्रकार गुरुकुलवासी साधुद्वारा भाष विधि निषेध सूत्रों का कथन करते हुये कहते है कि साधु स्वयं की योग्यता, परिषद् तथा विषय को भलीभाँति जानकर ऐसा उपदेश दे, जिससे स्व- पर को कर्मपाश से मुक्त कर सके, किसी भी प्रश्न का चिन्तन तथा पर्यालोचनपूर्वक, सर्वज्ञ के वचनों से अविरुद्ध, संगत उत्तर दे । प्रश्नकर्ता को समाहित करते समय सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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