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उद्यत श्रुतधर अथवा तीर्थंकरों से प्राप्त धर्म तथा समाधि का सेवन न करते हुए मिथ्यात्व के उदय से सर्वज्ञविरुद्ध प्रलाप करने वाले सर्वज्ञ पर श्रद्धा नहीं रखते, उनकी निन्दा करते है तथा अपने ही ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करते है, तो वे छेकवादी-पंडितमानी जमालि निह्नव की भाँति नष्ट हो जाते है, पथच्युत हो जाते है। वैसे व्यक्ति संयम और तप में पराक्रम करते हुए भी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते।
जो साधु भूल होने पर गुरु द्वारा शिक्षा पाकर अनुशासित होता हुआ अपनी चित्त वृत्ति को स्थिर रखता है, जो अपने गुरु के प्रति विनयादि गुणों से युक्त मृदुभाषी, सूक्ष्मदर्शी तथा पुरुषार्थशील है, वही उत्तमजाति से समन्वित तथा साध्वाचार में सहज, सरल भाव से प्रवृत्त होता है, और वही साधु सुशील है ।
जो अपने आप को संयम तथा ज्ञान का धनी मानकर परीक्षण बिना ही अपनी बडाई हाँकता है, न्यायविरुद्ध वचन बोलता है, क्लेश तथा मिथ्याभाषण करता है, अपने गुरु के नाम को छिपाता है, वह कृतघ्नी, परदोषभाषी कुशील आदान रूप (मोक्ष) पदार्थ से अपने आप को वंचित रखता है ।
आगे की गाथाओं में शास्त्रकार मद त्याग के विषय में कहते है कि जो साधु उत्कृष्ट त्याग, तप तथा संयम का पालन करता है किन्तु यदि जाति, ज्ञानादि मंद से लिप्त है, तो उसका वह त्याग भी नि:सार तथा निरर्थक है ।
जो भिक्षाजीवी साधु निष्किंचन है, भिक्षान्न से ही जीवनयापन करता है परन्तु यदि वह ऋद्धि आदि गारव करता है, अपनी स्तुति तथा प्रशंसा की झखना रखता है, तो रुक्षजीविता, भिक्षाचारी, अकिंचनता आदि आजीविका के साधन मात्र है । अत: साधु प्रज्ञा, तप, जाति, कुल, बल आदि का मद न करे। जो इनसे मुक्त होता है, वही पण्डित है । नाम, गोत्रादि मद से रहित मुनि ही गोत्र, नामादि से पार सर्वोच्च मोक्षपद को प्राप्त करता है ।
इस अध्ययन का उपसंहार करते हुये सुसाधु द्वारा याथातथ्य धर्मोपदेश रूप कुछ प्रेरणा सूत्रों का भी उल्लेख किया है।
साधु संसार भ्रमण के मूल कारण, मिथ्यात्व के उच्छेद तथा सम्यक्त्व प्राप्ति के उपाय बताएँ परन्तु यह उपदेश सत्कार, सम्मान, पूजा, प्रतिष्ठा की कामना से प्रेरित न हो। इस प्रकार याथातथ्य धर्म की प्ररूपणा करता हुआ, जीवन मरण की आकांक्षा से मुक्त, स्व-पर को भलीभाँति जानता हुआ साधक संयमाचरण में उद्यम करें।
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सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 163
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