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जो भाव परिणाम से उत्पन्न होता है, जैसे जीवत्व, अजीवत्व, भव्यत्व आदि ।
उपरोक्त पाँचों भावों में से 2/3 आदि के संयोग से उत्पन्न भाव सान्निपातिक कहलाता है ।
अथवा आत्मा के भीतर रहने वाला भावतथ्य चार प्रकार का है
मत्यादि पाँच प्रकार से जो वस्तु जैसी है, उसे उसी तरह समझना ।
शंकादि अतिचारों से रहित जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा
5. पारिणामिक
6. सन्निपातिक
1. ज्ञानतथ्य
2. दर्शनतथ्य
-
3. चारित्रतथ्य -
का सम्यक्तया पालन करना ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा उपचार रूप से 42 प्रकार के विनय की यथायोग्य आराधना - साधना करना ।
अथवा प्रशस्त एवं अप्रशस्त भेद से भावतथ्य दो प्रकार का है।
1. जैसा सूत्र, वैसा ही अर्थ और वैसा ही आचरण - यह प्रशस्त भावतथ्य है। 2. वैसा न हो तो वह अप्रशस्त भावतथ्य है।
4. विनयतथ्य
-
करना ।
बारह प्रकार के तप तथा सतरह प्रकार के संयम
प्रस्तुत अध्ययन में प्रशस्त भावतथ्य का अधिकार है।
नियुक्तिकार ' के अनुसार प्रशस्त भावतथ्य का अर्थ है - जिस पद्धति से सूत्र बनाये गये है, उनकी उसी तरह से व्याख्या करना तथा अनुष्ठान करना । अर्थात् जैसा सूत्र है, उसी प्रकार का आचरण हो । वही अनुष्ठान करने योग्य है, उसी को याथातथ्य कहते है । इसके विपरीत यदि सूत्र का अर्थ तथा व्याख्या समुचित न की जाये तथा तदनुसार आचरण न किया जाये अथवा उसे स्वमति से संसार का कारण मानकर निन्दा की जाये, तो वह याथातथ्य नहीं है । सुधर्मा स्वामी आदि आचार्यों की परम्परा से जिस सूत्र का सर्वज्ञ कथित जो अर्थ फलित होता है, उसे उसी स्वरूप में सरलता तथा जिज्ञासा वृत्ति से स्वीकारना याथातथ्य है, परन्तु इसके विपरीत परम्परागत सूत्र का विपरीत अर्थ कर अपने ज्ञानमद के द्वारा कुतर्क लगाकर कपोल कल्पित या विकृत अर्थ या व्याख्या करना अयाथातथ्य है ।
प्रस्तुत अध्ययन में 23 गाथाएँ है, जिसमें साधुओं तथा कुसाधुओं के याथातथ्य का निरूपण करते हुये कहते है कि रात-दिन सम्यक् अनुष्ठानों में 162 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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