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पड़ेगा। उनमें कोई भेद न होने से सम्पूर्ण जगत अनेकरूप न होकर अभेद हो जायेगा। परन्तु ऐसा नहीं है। जगत के समस्त पदार्थ विभिन्न रूप में दिखायी देते है। अत: उनका कथन प्रत्यक्ष विरूद्ध होने से अभीष्ट नहीं है। क्योंकि यह एकान्तवाद है, इसलिये सूत्रकार ने इसे मिथ्यादर्शन कहा है।
इसी प्रकार जो अक्रियावादी है, वे 'जीवादि पदार्थ सर्वथा नहीं है' इस प्रकार की प्ररूपणा करते है। यह कथन भी चूँकि एकान्त है, अत: असत्य होने से मिथ्यादर्शन ही है। क्योंकि एकान्त रूप से जीव का निषेध किया जाय तो कोई निषेधकर्ता न होने से ‘जीव नहीं है' ऐसा निषेध भी नहीं किया जा सकता। तब 'जीव नहीं है' इसके असिद्ध होने से समस्त पदार्थों का अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है। क्रियावादी कर्मफल, आत्मा आदि मानते है, जबकि अक्रियावादी, आत्मा, कर्मफल आदि का अस्तित्व नहीं मानते।
ज्ञान को न मानने वाले अज्ञानवादी है। इनके अनुसार अज्ञान ही श्रेष्ठतम है। इस श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिये वे प्रमाण का सहारा लेते है। इस प्रकार स्वयं के मत का खुद ही खण्डन करते है।
केवल विनय को मानने वाले विनयवादी है। ये लोग किसी भी मत की निन्दा नहीं करते अपितु समस्त प्राणियों का विनयपूर्वक आदर करते है। विनयवादी गधे से लेकर गाय तक, चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक तथा समस्त जलजर, स्थलचर, खेचर प्राणियों को नमस्कार करते है। यही उनका विनयवाद है, जिसके द्वारा वे मोक्ष की प्राप्ति मानते है। परन्तु ज्ञान और क्रिया के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है, अत: यह भी अज्ञानपूर्ण होने से मिथ्या ही है।
यहाँ नियुक्तिकार ने क्रियावाद के 180, अक्रियावाद के 84, अज्ञानवाद के 67 तथा विनयवाद के 32 भेदों का निर्देश मात्र किया गया है परन्तु वृत्तिकार ने इन भेदों की गणना प्रस्तुत की है, जो इस प्रकार है -
1. क्रियावादियों के 180 भेद जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ तत्त्वों के स्वत: तथा परत: की अपेक्षा से 18 भेद होते है। इन 18 भेदों के नित्य तथा अनित्य की अपेक्षा से छत्तीस भेद होते है। छत्तीस को काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा से वर्गीकृत करने पर (36x5) 180 भेद होते है।
158 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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