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2. अक्रियावादियों के 84 भेद __जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष के स्वत: और परत: की अपेक्षा से 14 भेद तथा इन्हें काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा से वर्गीकृत करने पर (14x6) 84 भेद होते है।
3. अज्ञानवादियों के 67 भेद । जीवादि नौ पदार्थों का सत्, असत्, सत्-असत्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात पदों की अपेक्षा से विभाजन करने पर (9x7) 63 भेद होते है। शेष चार भेद इस प्रकार है - 1. सत् पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और जानने से लाभ है ? इसी प्रकार असत्, सदसत् तथा अव्यक्तव्य के सम्बन्ध में जानना चाहिये। इस प्रकार 63+4=67 भेद अज्ञानवादियों के है।
4. विनयवादियों के 32 भेद देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता तथा पिता इन आठों में प्रत्येक का मन, वचन, काया और दान इन चारों अपेक्षा से विनय करना चाहिये। ये (8x4) 32. भेद विनयवादियों के है।
इस अध्ययन की उपयोगिता बताते हुये नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार कहते है कि इस अध्ययन में पूर्वोक्त मतवादियों के द्वारा स्वेच्छा से स्वीकृत मतों का प्रतिपादन गणधरों ने इसलिये किया है कि उनके मत में जो सत्य तथ्य या परमार्थ है, उसका निर्णय हो सके। इसीलिये प्रस्तुत अध्ययन को समवसरण नाम से अभिहित किया गया है। इस समस्त वादों का समन्वयपूर्वक संगम ही इस अध्ययन का उद्देश्य है। . इन वादों में से क्रियावादी जीव को 180 भेदों द्वारा एकान्त रूप से सत् ही मानते है। तथा काल, स्वभाव आदि पाँचों वादी भी एकमात्र अपने-अपने काल आदि वाद को ही यथार्थ मानते हैं। इसलिये ये मिथ्यादृष्टि ही है। ये क्रियावादी यदि जीव को कथंचित रूप से सत् माने तथा काल आदि पाँचों कारणों को माननेवाले भी सिर्फ एक को न मानकर पाँचों कारणों को समवाय रूप माने तो ये सम्यग्दृष्टि कहे जा सकते है, क्योंकि एकान्तत: वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप का कथन नहीं हो सकता। यदि इन पाँचों वादों के समूहों को कारण रूप में माने • तो ही वस्तु के सत्य स्वरूप का कथन सम्भव है और यही सम्यग्दर्शन है। । शेष तीनों वाद एकान्तवादी होने से मिथ्यादृष्टि है। परन्तु इन तीनों को
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 159
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