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________________ का एकत्र होना या द्वयणुकों का सम्मिलन अचित्त द्रव्य समरवसरण है। मिश्र-द्रव्यसमवसरण - सेनादि का एकत्र होना। क्षेत्र-समवसरण- परमार्थत: नहीं होता है परन्तु विवक्षा से जहाँ पशुओं तथा मनुष्यों का मेला लगता है अथवा जहाँ समवसरण की व्याख्या की जाती है, वह क्षेत्रसमवसरण है। काल-समवसरण - जिस काल में जो समवसरण होता है, वह कालसमवसरण समझना चाहिये। भाव-समवसरण - जहाँ औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सन्निपातिक इन छ: भावों का संयोग होता है। नियुक्तिकार ने प्रकारान्तर से भी भावसमवसरण के भेदों का निरूपण किया है। 'जीवादि पदार्थ है' ऐसा मानने वाले क्रियावादी, इसके विपरीत 'जीवादि पदार्थ नहीं है' ऐसी मान्यता वाले अक्रियावादी, जो ज्ञान को नहीं मानते, वे अज्ञानवादी तथा विनय से ही मोक्ष की प्राप्ति मानने वाले विनयवादी- इन चारों वादों का भेद-प्रभेद सहित आक्षेप करके विक्षेप करना अर्थात् इनकी भूलों को निकालकर सुमार्ग का प्रतिष्ठापन करना भावसमवसरण है।' प्रस्तुत अध्ययन में जीव, जगत तथा ईश्वर के सम्बन्ध में अपनी विभिन्न धारणाएँ स्थापित करने वाले समस्त दार्शनिक मतों को अपने में समाहित करने वाले उपरोक्त चार वादों का विस्तार से वर्णन है। समस्त दर्शनों की विभिन्न मान्यताएँ है तथा वे अपने-अपने मतानुसार आत्मादि पदार्थों की सिद्धि करते है। प्रस्तुत अध्ययन में उपरोक्त चार प्रकार के वर्गीकरण में उन्हें समाविष्ट करके चारों को ही मिथ्यादृष्टि तथा उनके मत को मिथ्यामत कहा गया है। क्योंकि ये सभी एकान्त रूप से वस्तु तत्त्व का निरूपण करते है, जो मताग्रह ही है। क्रियावादी एकान्त रूप से जीवादि पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते है कि जीवादि पदार्थ है ही। यहाँ 'ही' पर बल देकर जब जीव की एकान्त सत्ता को स्वीकार किया जाता है, तब उसके कथंचित् नास्तित्व का कथन नहीं किया जा सकता अर्थात् यही कहा जा सकता है कि वह सब प्रकार से है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह किसी अपेक्षा से नहीं भी है। ऐसी स्थिति में जीव जैसे अपने स्वरूप से सत् है, उसी प्रकार दूसरे (घटपटादि) रूप से भी सत् होने लगेगा। ऐसा होने पर जगत के समस्त पदार्थ एक होने का दोष आ सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 157 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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