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करते हुये कहते है कि श्रावक के स्वामित्व वाले स्थानों में ठहरा हुआ साधु श्रावकों के हिंसाजनित दानादि कार्यों की अनुमोदना न करे। जब किसी श्रद्धालु द्वारा शुभभावना से (सचित्त पदार्थों के आरम्भ - समारम्भ होने से ) दानादि दिया जाता है, तो साधु उसे 'अत्थित्ति णो वए णत्थिति णो वए' पुण्य या पाप न कहे । क्योंकि यदि वह उसे पुण्य कहता है तो (आरम्भ - समारम्भ करते समय निष्पन्न हिंसा) प्राणीवध का अनुमोदन करता है और यदि वह उसे पाप कहता है, तो जिन्हें वह तथाविध (आरम्भ से बनाया गया) दान दिया जाता है, उनकी वृत्तिछेदन द्वारा अन्तराय का भागी होता है। अतः मोक्षाभिलाषी साधक सर्वथा मौन या तटस्थ रहे । "
तात्पर्य यह है कि जिस दानादि शुभ क्रिया के पीछे किसी प्रकार की हिंसा न हो ऐसी अचित्त, आरम्भ रहित, अप्रासुक वस्तु का दान यदि शुभ भावों से भावित होकर कोई करता है, तो साधु उसे अवश्य पुण्य कह सकता है। प्राणियों की सुरक्षा के लिये अनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले दान का निषेध कदापि नहीं हो सकता ।
भगवती सूत्र की टीका में भी यह स्पष्ट कहा है कि अनुकम्पादान का निषेध तीर्थंकरों ने कदापि नहीं किया है।' इस कथन द्वारा यह निष्कर्ष निकलता है कि साधु आरम्भ रहित अथवा निरवद्य दया का उपदेश या मार्गदर्शन कर सकता है। आगे की गाथाओं में संयम, सदाचार, आहार शुद्धि की बात कही गयी है, जिसके आचरण द्वारा साधक भावमार्ग पर उत्तरोत्तर गतिमान रहता है । परन्तु जो दुर्बुद्धि व्यक्ति होते है, वे शुद्ध मार्ग की उपेक्षा करके उसी प्रकार महासमुद्र रूपी संसार में भटक जाते है, जिस प्रकार छिद्र वाली नाव पर सवार होकर जन्मान्ध पुरुष डूबता है।
इस प्रकार भगवान द्वारा प्रतिपादित ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपरूप भावमार्ग में सुमेरनगरीवत् निश्चल साधु ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है ।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
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(अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
(च) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र
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सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 109-110
सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
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सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 155
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