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पथ्य, श्रेय, निवृत्ति, निर्वाण तथा शिवकर।
प्रस्तुत अध्ययन उद्देशक रहित 38 गाथाओं में निबद्ध है। .. प्रारम्भ में साधक द्वारा यह पूछा गया है कि कौन-सा मार्ग सत्य तथा श्रेष्ठ है ? सूत्रकार साधक की जिज्ञासा को समाहित करते हुये कहते है- जो षट्जीवनिकाय की अहिंसा से युक्त है, वही मार्ग श्रेष्ठ और सुखकारी है। क्योंकि जगत के समस्त जीव इस षट्जीव निकाय में समाहित हो जाते है। इन समस्त प्राणियों को, चाहे वे सूक्ष्म हो या बादर, चर हो या अचर हो, लघुकाय हो या विशालकाय, 'सव्वे अकंतदुक्खा य' सभी को दु:ख अकान्त यानि अप्रिय है। अत: मोक्षाभिलाषी साधक को इन समस्त जीवों की हिंसा से विरत होना चाहिये। इसी के द्वारा परम शान्तिमय निर्वाण की प्राप्ति कही गयी है।
सूत्रकार ने पिछले अध्ययनों में भी यही बात कही है। आचारांग के प्रथम शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में विस्तार से षट्जीवनिकाय की अहिंसा का प्रतिपादन है। इन जीवों की पुन:-2 अहिंसा का कथन इस बात पर बल देता है कि साधक के पंचमहाव्रतों में अहिंसा व्रत सर्वश्रेष्ठ है, पर इसलिये नहीं कि साधक को सर्वप्रथम अहिंसा महाव्रत धारण करवाया जाता है। बल्कि इसलिये कि अहिंसा ही अन्य महाव्रतों का प्राण है, आधार स्तंभ है। जहाँ अहिंसा महाव्रत रूपी नींव कमजोर हो जाती है, वहाँ अन्य चार महाव्रत रूपी स्तंभों पर टिका संयम रूपी भवन अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग रूपी हल्के से तूफान के आते ही चरमराकर ढह जाता है। अत: जहाँ अहिंसा है, वही सत्य है, अचौर्य है, ब्रह्म तथा अपरिग्रह है।
वर्तमान में चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत को श्रेष्ठ बताकर अन्य चार महाव्रतों को गौण तथा उपेक्षित किया जा रहा है, जो जैन समाज के लिये बहुत ही घातक सिद्ध हुआ है।
___ यदि एक महाव्रत की ही पालना श्रेष्ठ होती, तो श्रमण महावीर द्वारा पंचमहाव्रतों की स्थापना नहीं की जाती और न ही पाँचों के निरतिचार पालन की बात कही जाती। अत: जो साधक एक भी महाव्रत से च्युत है अथवा मात्र एक ही (चतुर्थ) महाव्रत से युक्त है, वह मोक्ष का पथिक नहीं कहा जा सकता । सर्वज्ञ महापुरुषों द्वारा सर्वत्र अहिंसा की पुनरूक्ति भी यही प्रमाणित करती है कि उन्होंने भविष्य के दोषों का साक्षात् दर्शन तथा आकलन करते हुये ही इस बात का प्रतिपादन किया होगा।
शास्त्रकार आगे की गाथाओं में भाषा समिति के कुछ सूत्रों का उल्लेख 154 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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