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________________ अंजन, श्रृंगार, दन्त प्रक्षालन, गन्ध, माल्य, स्नान आदि को कर्मबंध का कारण जानकर त्याग करे। साधु औद्देशिक, क्रीत ( खरीदा हुआ), प्रामित्य (उधार लिया हुआ), आहृत (सामने लाया हुआ), पूति कर्म ( आधाकर्मी आहार से मिश्रित), तथा अनैषणीय आहार को संयम का विघातक मानकर उसका भक्षण न करे । असंयमियों से अति संसर्ग, सांसारिक वार्तालाप, ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नोत्तर, जुआ - शतरंज आदि खेलना, जूते छाते धारण करना, पंखे से हवा झलना आदि को संसार वृद्धि का कारण जानकर सुसंयत साधु इन दोषों में उलझकर संयम को दूषित न करे तथा गृहस्थ से कुशल पृच्छा भी न करे । इस अध्ययन में मूलगुण तथा उत्तरगुणों के पश्चात् भाषा समिति तथा वचन समिति के सूत्रों का उल्लेख है । साधु जहाँ आवश्यकता हो, वहीं निर्दोष और निरवद्य वचन बोले । मर्मस्पर्शी, तुच्छ, अप्रिय सम्बोधनवाली, जीव विघातिनी, अमनोज्ञ सत्य भाषा का प्रयोग न करे। रत्नाधिक साधु के बोलने पर अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने हेतु बीच -2 में न बोले। इस प्रकार जो साधु अपनी सुमति से प्रेक्षा करने के पश्चात् वचनोच्चार करता है, वह 'भासमाणो न भासेज्जा' अर्थात् बोलता हुआ भी मौन ही है अर्थात् वचन गुप्ति से युक्त है। इस प्रकार महामुनि, अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शी भगवान महावीर ने अपने अनुभव से इस आचार शास्त्र रूप लोकोत्तर धर्म का प्रतिपादन किया है। के इस अध्ययन में चूर्णि की वाचना के अनुसार 37 गाथाएँ है जबकि वृत्ति अनुसार गाथाओं की संख्या 36 ही है । चूर्णि तथा वृत्ति की दृष्टि से गाथाओं की वाचना में भी काफी भेद है। संक्षेप में यह अध्ययन साधु को अनाचरणीय प्रवृत्तियों तथा दूषणों का त्यागकर संयम को भूषित करने वाले भावधर्म का सम्यक्तया पालन करने का सन्देश देता है। 1. 2. 3. सन्दर्भ एवं टिप्पणी - 485 पाई असद्दमहण्णवो - पृ. (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 176 99 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 100/101 (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 176-177 Jain Education International सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 149 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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