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9. धर्म अध्ययन सूत्रकृतांग सूत्र के नवम अध्ययन का नाम 'धर्म' है। यों तो धर्म का प्रसिद्ध अर्थ शुभ अनुष्ठान है, परन्तु कोष में धर्म के कई अर्थ बताये गये है- शुभकर्म, कर्तव्य, कुशल अनुष्ठान, सुकृत, पुण्य, सदाचार, स्वभाव, गुण, पर्याय, धर्मास्तिकाय, द्रव्य, मर्यादा, रीति, व्यवहार आदि ।'
पूर्व अध्ययन में बालवीर्य तथा पण्डितवीर्य का वर्णन किया गया। पण्डितवीर्य वही साधक है, जो धर्माचरण में पुरुषार्थ करता है। इस प्रकार यहाँ पूर्वापर सम्बन्ध है।
. नियुक्तिकार के कथनानुसार इस अध्ययन में भावधर्म का अधिकार है। जो दुर्गति में जाते हुये जीव को बचाता है, वह धर्म है। दशवैकालिक सूत्र में भी इसी धर्म का प्रतिपादन किया गया है। यही भावसमाधि है और यही भावमार्ग है। भावधर्म के दो भेद है- श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म। दशविध चारित्रधर्म ही भावधर्म है। इन गुणों की हृदय में सम्यक् स्थापना भावसमाधि है तथा सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मुक्तिमार्ग ही भाव मार्ग है।2।।
धर्म के नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव चार निक्षेप होते है। नाम तथा स्थापना सुगम है। द्रव्य धर्म तीन प्रकार का है -
(अ) सचित्त द्रव्यधर्म - सचित्त अर्थात् चेतना का धर्म उपयोग रूप है। (ब) अचित्त द्रव्यधर्म - धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का अपना-अपना स्वभाव। (स) मिश्र द्रव्यधर्म - दूध और जल आदि का अपना जो स्वभाव है।
भावधर्म दो प्रकार का है - लौकिक तथा लोकोत्तर । पुन: लौकिक धर्म दो प्रकार का है, एक गृहस्थों का तथा दूसरा पाषण्डियों का।
लोकोत्तर धर्म ज्ञान, दर्शन, चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। मत्यादि की अपेक्षा से ज्ञान पाँच प्रकार का है। औपशमिकादि पाँचभेद वाला दर्शन है। तथा सामायिकादि भेद से चारित्र के भी पाँच प्रकार है।
प्रस्तुत अध्ययन में एक ही उद्देशक है, जिसमें 36 गाथाएँ निबद्ध है। इसमें ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र युक्त साधुओं के लिए भावधर्म का कथन करते हुये कहते है कि प्रज्ञावान् साधु षट्जीवनिकाय के जीवों की अहिंसा करे, निरवद्य वचन, अचौर्य, ब्रह्म, तथा अपरिग्रह इन पंच महाव्रतों का विशुद्ध पालन करे, चारों कषायों का त्याग करे।.
. शरीर सज्जा के लिये हाथ-पैर प्रक्षालन, वस्त्रादि रंजन, विरेचन, वमन,
148 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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