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1. शस्त्र- जिससे प्राणियों का वध किया जाता है, जैसे- तलवार आदि । शास्त्र- जिनसे प्राणी घातक विद्या सीखी जाती है, जैसे- धनुर्वेद से धनुष चलाना, आयुर्वेद - कतिपय रोग निवारणार्थ प्राणियों के रक्त, चर्बी आदि का प्रयोग जिसमें किया जाये। इसी प्रकार अर्थ, नीति तथा कामशास्त्र के आश्रय से अज्ञजन पापकर्म में दक्ष होकर तीव्र पाप का बंध कते है । "
इसी प्रकार पंडित (अकर्म ) वीर्य का विवेचन करते हुये कहा गया है कि पण्डित अकर्मवीर्य सम्पन्न पुरुष सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र को ग्रहण करके सदैव उसी में उद्यम करता है। चूँकि समस्त उच्चपद यथा- देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि अपने स्थानों को छोड़कर आयुक्षय होते ही मरण को प्राप्त होते है। अतः वह साधक संसार को अनित्य, अनियत मानता हुआ अनित्य, अशरणादि की अनुप्रेक्षा करता है। अपनी सन्मति से धर्म के सार को ग्रहण कर कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय होता हुआ समस्त पापों से विरत हो जाता है। कषायमुक्त, निस्पृह, त्रियोग - त्रिकरण से हिंसा से विरत, पूर्ण नि:संग होकर अपने लक्ष्य की ओर पराक्रम करता है ।
संक्षेप में जो जीव अबुद्ध है, उनका अशुद्ध पराक्रम बालवीर्य है तथा जो संबुद्ध है, उनका पराक्रम पण्डितवीर्य है । अत: बालवीर्य जहाँ संसार बढ़ाता है, वहीं पण्डितवीर्य अन्त में निर्वाण सुख को उपलब्ध होता है ।
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सन्दर्भ एवं टिप्पणी
91-95
पाइअसद्दमहण्णवो - पृ. 184 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र 165-166 सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा
96
(अ) सूत्रकृतांग चूर्णि - पृ. - 165
(ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र
167
वही, गा. 97
(अ) वही, गा. 98
(च) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र
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सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 147
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