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8.
योगवीर्य
9. तपोवीर्य
10.
-
जानना ।
मन, वचन, काया के व्यापार को प्रशस्त प्रवृत्ति लगाना ।
12 प्रकार के तप में पराक्रम करना ।
संयमवीर्य
17 प्रकार के संयम पालन में उद्यत रहना ।
ये सभी आध्यात्मिक भाववीर्य है। आध्यात्मिक भाववीर्य का तात्पर्य आत्मा की आन्तरिक शक्ति से उत्पन्न सात्विक बल है । वीर्यप्रवाद पूर्व, जो अनन्त अर्थ वाला है, उसमें वीर्य के अनन्त प्रकार बताये गये है ।
पूर्वों में वर्णित ज्ञानराशि को उपमा द्वारा इस प्रकार समझाया गया है ' - सभी नदियों के बालु कणों की जो संख्या है, उससे भी बहुत अधिक अर्थ वाला होता है एक पूर्व ।
सभी समुद्रों के पानी का जितना परिमाण होता है, उससे भी अधिक अर्थ वाला एक पूर्व होता है।
प्रस्तुत अध्ययन में उपरोक्त आध्यात्मिक भाववीर्य 3 प्रकार से विवक्षित है। पण्डितवीर्य, बालपण्डितवीर्य, बालवीर्य ।
1. पण्डितवीर्य - सम्पूर्ण संयम का पालन करने वाला ।
2. बालपण्डित वीर्य - व्रतधारी संयमासंयमी देशविरति श्रावक । 3. बालवीर्य - अज्ञानी तपस्वी । इन तीनों को सम्यक्तया जानकर साधु को पण्डितवीर्य में पुरुषार्थ करना चाहिये । '
इस अध्ययन में एक ही उद्देशक है, जो 27 गाथाओं में निबद्ध है । परन्तु चूर्णि में 19वीं गाथा अधिक है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही जम्बू स्वामी के पूछने पर सुधर्म गणधर वीर्य के स्वरूप और प्रकार बताते हुए कहते है कि लोक में अकर्म तथा कर्म ये दो ही वीर्य के भेद है। कर्म का अर्थ यहाँ प्रमाद के रूप में विवक्षित है। जो अप्रमादी तथा संयम परायण है, वे अकर्म यानि पण्डितवीर्य है। जो प्रमादी एवं असंयमी है, वे कर्मवीर्य या बालवीर्य कहलाते है ।
यहाँ बालवीर्य की विशेष व्याख्या करते हुए सूत्रकार कहते है कि कुछ लोग प्राणियों का वध करने के लिये धनुर्विद्या आदि सीखते है, तो कुछ मंत्रविद्या भी पढ़ते है । असंयमी व्यक्तियों के ये पराक्रम कर्मवीर्य या बालवीर्य है। क्योंकि
प्राणी घातक, प्राणी पीड़ादायक, कषायवर्धक, शत्रु परम्परा के सर्जक तथा राग-द्वेषवर्धक है, जो अन्त में अनन्त दुःख का स्पर्श कराने वाले है । प्रसंगवश यहाँ 'सत्थं' शब्द के नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार ने दो अर्थ ि
146 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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