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________________ छेदन-भेदन करने वाला मोक्षार्थी निश्चित रूप से इन पापकारी कार्यों से कर्मबन्धन द्वारा अपने लिए या तो नरक का पाथेय तैयार करता है या गर्भ में ही मर जाता है अथवा स्पष्ट बोलने की उम्र आने तक या आने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। कोई कुमार अवस्था में तो कोई यौवन की दहलीज पर चढ़कर ही चल बसता है। अत: मनुष्य भव की दुर्लभता जानकर बोध को प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि यह संसार ज्वरपीड़ितवत् एकान्त दु:खी है। आगे की गाथाओं में मोक्षवादी कुशीलों के मत एवं उनका खण्डन करते हुये सुसाधु की चर्या का निरूपण किया गया है। ____ शास्त्रकार स्वयूथिक, आचारभ्रष्ट कुशील साधुओं के शिथिलाचार का निरूपण करते हुए कहते है, जो साधू गृद्ध, दीन-हीन बनकर घरों में जाता है, भाट-चारण की तरह मुखमांगलिक (स्तुति, प्रशस्ति करने वाला) बनकर लोगों को प्रसन्न करता है, वह उदरंभरी साधु विशालकाय सुअर की तरह शीघ्र विनाश को प्राप्त होता है। तथा जो माता-पिता, पुत्र, पशु आदि को छोड़कर स्वादिष्ट भोजन की लालसा में घरों की ओर दौड़ता है, औद्देशिक आदि दोष सहित आहार का भी संचय करके खाता है, कंदमूल तथा हरित आदि सचित्त का भक्षण करता है, अचित्त जल से स्नान तथा अंगविभूषा करता है, वह साधु (नामधारी) सर्वज्ञ वचनानुसार श्रामण्य गुणों से कोसों दूर है। अत: सुशील साधु अज्ञातपिण्ड से अपना निर्वाह करता हुआ मानापमान से पार, पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा न करे। प्रस्तुत अध्याय में 'लसूणं' शब्द का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार' यहाँ स्पष्ट कहते है कि जो मद्य-माँस व लहसून खाकर के मोक्ष की परिकल्पना करते है, वे मूढ सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्र रूप मोक्ष के तथाविध अनुष्ठान के असद्भाव से चातुर्गतिक संसार में ही भ्रमण करते है। . शास्त्रकार अध्ययन का उपसंहार करते हुये कहते है कि सुशील साधु पूर्वोक्त कुमतों एवं कदाग्रहों में न फँसता हुआ, मनोज्ञ रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श में राग-द्वेष बुद्धि से मुक्त होकर दु:खों की तितिक्षा करे, क्योंकि ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र में पूर्णत: जागृत, निर्भय तथा अप्रतिबद्ध विहारी साधु कर्मशत्रु का उसी प्रकार दमन करता है, जिस प्रकार सुभटपुरुष युद्ध मैदान में शत्रु का दमन करता है। वह कर्म संहारक मुनि जन्म, जरा, मरण, उपाधि रूप संसार के चक्र को उसी प्रकार रोक देता है, जैसे गाड़ी की धुरा (अक्ष) टूट जाने पर गाड़ी रूक जाती है। सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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