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________________ है। जैसे- गाय, भैंस आदि। . . 4. रसज - छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव। 5. संस्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल, यूका-आदि जीव। 6. सम्मूर्च्छनज - इसका शाब्दिक अर्थ है- घना होने, बढ़ने या फैलने की क्रिया। जो सर्दी, गर्मी आदि बाह्य कारणों के संयोग से गर्भ के बिना उत्पन्न होते है, बढ़ते है और फैलते है, वे जीव सम्मूर्च्छनज कहलाते है। जैसे- शलभ, चींटी, मक्खी आदि। 7. उद्भिज - पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंग, खञ्जरीट आदि जीव। 8. औपपातिक - उपपात अर्थात् अकस्मात घटित होने वाली घटना। देवता और नारकीय जीव औपपातिक कहलाते है। ये माता-पिता के संयोग से उत्पन्न नहीं होते, अत: गर्भज नहीं है। इनके मन होता है, इसलिए ये सम्मूछिम भी नहीं है। रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज ये सभी प्राणी सम्मूछिम है। सुख की अभिलाषा प्राणी का सामान्य लक्षण है। त्रस तथा स्थावर सभी प्राणी सुख के आकांक्षी होते है। अत: साधक सूक्ष्म-दृष्टि से विचारकर इन प्राणियों की हिंसा न करे। जो उनके दु:ख को आत्मवत् नहीं जानता, वह इन्हीं प्राणियों में जन्म धारण करता है। अग्निकाय समारम्भ को दोषयुक्त बताते हुये कहते है कि जो अपने माता-पिता को छोड़कर, श्रमण व्रत धारण कर अग्निकाय की हिंसा करता है अर्थात् पचन-पाचन करता है, वह सर्वज्ञ द्वारा कुशील कहा गया है, क्योंकि आग जलाने वाला पृथ्वी, अप, उड़ने वाले संपातिम जीव, संस्वेदज (पसीने से उत्पन्न) एवं काष्ठाश्रित (लकड़ी आदि) जीवों को भी जला देता है तथा अपने शरीर का पोषण करने के लिये हरी दूब, अंकुर आदि वनस्पति का छेदन-भेदन करता है, वह अज्ञानी पुरुष बहुत से प्राणियों का विनाश कर देता है। सर्वज्ञ पुरुषों ने उक्त हिंसा करने वाले को अनार्यधर्मी कहा है। उपरोक्त भाव उन परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर प्रहार कर रहे है, जो अग्नि समारम्भ (यज्ञादि) तथा सचित्त आहार (हरी वनस्पति, फल, फूल) द्वारा मोक्ष प्राप्ति का दावा करते है। शास्त्रकार ने यहाँ पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु तथा वनस्पति में जीवों का अस्तित्व बताते हुये यह भी स्पष्ट किया है कि अपनी सुख-सुविधा तथा शरीर की शाता के लिये इन जीवों का आरम्भ-समारम्भ तथा 142 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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