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3. निर्ग्रन्थ कुशील - महावीर की परम्परा के शिथिल साधु। 4. गृहस्थ कुशील - अशील गृहस्थ।।
नियुक्तिकार ने कुछ कुशीलों - (परतीर्थिक, पार्श्वस्थ तथा अविरत) के नामों का उल्लेख भी किया है, यथा - गोव्रतिक, चंडदेवगा, उपासक, वारिभद्रक, अग्निहोत्रवादी, जलशौचवादी, भागवत तथा पार्श्वस्थ, अवसन्न आदि स्वयूथिक।'
गोव्रतिक वे लोग है, जो प्रशिक्षित छोटे से बैल को लेकर अन्न आदि के लिये घर-घर घूमते है। चण्डी उपासक वे है, जो चण्डी की उपासना करते है या चक्रधारण करते है। वारिभद्रक अर्थात् जो सचित्त जल पीते है, नित्य शैवाल भोजी है तथा स्नान, पादधोवन आदि में रत है। अग्निहोत्रवादी वे है, जो अग्नि में होम करने से ही स्वर्ग प्राप्ति बताते है। भागवत आदि रात-दिन जलशौच में ही संलग्न रहते है, ये और इस प्रकार के अन्य, जो अप्रासुक (सचित्त) आहारभोजी है, वे सभी कुशील है। पार्श्वस्थ, अवसन्नादि जो उद्गमादि दोषयुक्त आहार का सेवन करते है, वे भी कुशील कहलाते है।
इस अध्ययन में मुख्य रूप से कुशीलों की मुख्य तीन मान्यताओं का वर्णन है - (1) आहारसंपज्जण - अर्थात् आहार में रस पैदा कर मधुरता उत्पन्न करने वाले लवण त्याग से मुक्ति की प्राप्ति मानने वाले (2) सीओदगसेवण - अर्थात शीतल जल से मोक्ष प्राप्ति मानने वाले (3) हुएण - अर्थात् होम (यज्ञ) से मोक्ष प्राप्ति मानने वाले। इन तीनों विचारधाराओं का शास्त्रकार ने अनेक दृष्टान्तों द्वारा युक्तिसंगत खण्डन किया है, जिसका विश्लेषण आगे के अध्याय में प्रस्तुत किया जायेगा।
प्रारम्भिक गाथाओं में शास्त्रकार ने पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, वनस्पति तथा त्रस इन षट्कायों का उल्लेख कर त्रस प्राणियों के चार प्रकारों का वर्णन किया है -जरायुज, अण्डज, संस्वेदज तथा रसज । दशवैकालिक में यह वर्गीकरण आठ प्रकार से पाया जाता है
1. अंडज - अंडे से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि।
2. पोतज - 'पोत' अर्थात् शिशु। जो शिशु रूप में उत्पन्न होते है, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं होता, वे पोतज है। जैसे- हाथी, चर्म-जलोका आदि।
3. जरायुज - जरायु अर्थात् गर्भवष्टन या झिल्ली, जो शिशु को आवृत किये रहती है। जन्म के समय जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते है, वे जरायुज
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 141
मना।
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