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युक्त न होते हुये भी अपने दोषों को गूढ रखकर अपने ही मताग्रहों तथा दुराचार को सत्य और सुशील बताते है।
नियुक्तिकार' ने शील शब्द के चार निक्षेप किये है - 1. नामशील- किसी गुणशून्य का शील नाम रखना, नामशील है। 2. स्थापनाशील- किसी वस्तु में शील की स्थापना करना, स्थापनाशील
3. द्रव्यशील- चेतन या अचेतन, जिस द्रव्य का जो स्वभाव है या भोजन, वस्त्रादि के विषय में भी जिसकी जो प्रकृति है, वह द्रव्यशील कहलाता है।
4. भावशील- भावशील के मुख्यत: दो प्रकार है -
अ. ओघभावशील - पाप कार्यों से सम्पूर्ण विरत अथवा विरताविरत।
ब. आभीक्ष्ण्य सेवनाशील - निरंतर या बार-बार शील का आचरण करता है।
प्रकारान्तर से भावशील के दो प्रकार हैं - ज्ञानशील, तप:शील । 1. प्रशस्तभावशील = धर्मशील, 2. अप्रशस्तभावशील = अधर्म या क्रोध आदि में प्रवृत्ति करना।
भावअशील तथा भावकुशील में भी यह अन्तर है कि भाव से अशील किसी भी प्रकार के संयम या सदाचार के पालन में प्रवृत्त नहीं होता, न उस प्रकार का अनुष्ठान करता है। परन्तु भावकुशील संयम तथा शील पालन में प्रवृत्त तो होता है परन्तु विपरीत रूप से। अर्थात् जो धर्म की आड में अधर्म तथा दुःशील का सेवन करता है, क्रोधादि कषाय तथा अन्य पापस्थानकों में प्रवृत्त होता है, वह भावकुशील है।
प्रस्तुत अध्ययन में भावकुशील ही विवक्षित है। नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार ने कुशील तथा सुशील की व्याख्या करते हुये बताया है कि जिसका शील कुत्सित अर्थात् निन्दनीय है, वह कुशील है, परन्तु जिसका शील शुद्ध तथा प्रशंसनीय है, वह सुशील है। इसी प्रकार जो अप्रासुक अर्थात् शीतजल, हरित, अग्नि आदि का सेवन करते है, उद्गमादि दोषयुक्त आहार का सेवन करते है, वे कुशील है तथा जो प्रासुक एवं अचित्त (एषणीय) आहार ग्रहण करते है, वे सुशील है।
वृत्तिकार ने मुख्यत: चार प्रकार के कुशीलों का उल्लेख किया है -3 1. परतीर्थिक कुशील - अन्य धर्म-सम्प्रदायों के शिथिल साधु।
2. पापित्यिक कुशील - पार्श्व की परम्परा के शिथिल साधु । 140 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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