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की कामना से युक्त बनते है । अभय अर्थात् समस्त भयों का जिनमें अभाव हो गया है । निरामगंधी अर्थात् वे निर्दोषभोजी है। स्थितप्रज्ञ - जिनकी प्रज्ञा पूर्णत: स्थित हो गयी है अर्थात् मान-अपमान, सुख-दुःख की समस्त स्थितियों में भी जो तटस्थ और निश्चल चित्त वाले है ।
जिस प्रकार लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत तथा वलयाकार पर्वतों में रुचक पर्वत श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त प्रज्ञापुरुषों में श्रमण महावीर श्रेष्ठ है। जैसे वृक्षों में शाल्मली वृक्ष, वनों में नन्दनवन, शब्दों में मेघगर्जन, तारागण में चन्द्रमा, गंधों में चन्दन, धर्मों में निर्वाण, समुद्रों में इक्षुरस, पक्षियों में गरुड़, मृगों में मृगेन्द्र, हाथियों में ऐरावण, पर्वतों में सुमेरू, दानों में अभयदान, सत्य वचनों में निरवद्य वचन, तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तथा उत्तम है, उसी प्रकार निर्वाणवादियों में भगवान महावीर श्रेष्ठ है ।
भगवान महावीर को प्रस्तुत अध्ययन में निर्वाणवादी कहा गया है । निर्वाणवादी अर्थात् मोक्षवादी । प्राचीनकाल में दार्शनिक जगत् में दो परम्पराएँ मुख्य रही है - निर्वाणवादी परम्परा और स्वर्गवादी परम्परा । श्रमण परम्परा निर्वाणवादी परम्परा है। उसमें साधना का लक्ष्य निर्वाण है और वही उसका सर्वोच्च आदर्श है। भगवान महावीर ने इस आदर्श को सर्वाधिक मुल्य दिया, इसलिये वे निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहलाएँ और उनकी परम्परा निर्वाणवादी परम्परा कहलाई । इस परम्परा में साधना के वे ही तथ्य मान्य है, जो कि निर्वाण के पोषक, संवर्धक है । स्वर्गवादी परम्परा में ऐसा नहीं है । याज्ञिक परम्परा स्वर्गवादी परम्परा है । "
जैसे सभाओं में सुधर्मा सभा, योद्धाओं में विश्वसेन चक्रवर्ती तथा क्षत्रियों तव श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त ऋषियों तथा ज्ञानियों में श्रमण महावीर श्रेष्ठ है।
महाभारत सभापर्व में दन्तवक्त्र नामक क्षत्रिय का उल्लेख है। इसे राजाओं का अधिपति और महान् पराक्रमी माना है । "
भगवान महावीर पृथ्वी के समान समस्त प्राणियों के आधारभूत, विगतगृद्धि(बाह्याभ्यन्तर आसक्ति से रहित), चारों कषायों के वन्ता, न पाप करते है, न करवाते है । वे क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादियों के समस्त वादों को सम्यक्तया जानकर आजीवन संयम में स्थित है। भगवान महावीर के समय में तीन सौ तिरेसठ मत प्रचलित थे । जैनागमों में उन सबका समाहार उपरोक्त चारों वादों में किया गया है। इन वादों की विस्तृत मीमांसा अगले अध्याय में करेंगे। 138 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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