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गया। इस अध्ययन में उन समस्त दोषों से विरत, उपसर्गजेता, आत्महितैषी साधक के आदर्श, अनुत्तर योगी, श्रमण तीर्थंकर महावीर को परमनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।
शास्त्रों में भगवान महावीर के तीन नाम प्राप्त होते है - वर्धमान. श्रमण तथा महावीर। महावीर स्तव में निहित महा+वीर+स्तव इन तीनों शब्दों के नियुक्तिकार ने क्रमश: छह, चार तथा चार निक्षेप किये है। महत् शब्द के चूर्णिकार ने दो अर्थ किये है- प्रधान तथा बहुत । यहाँ यह प्राधान्य अर्थ में गृहित है। इसके नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव ये छह निक्षेप है।
वीर का अर्थ है- वीर्यवान, शक्तिशाली। इसके चार निक्षेप इस प्रकार है
1. द्रव्यवीर - सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य के वीर्य, शक्ति को द्रव्यवीर कहा जाता है।
(क) सचित्तद्रव्यवीर के तीन प्रकार है - .. (अ) द्विपद - तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव का शारीरिक वीर्य।
चूर्णिकार ने आवश्यक नियुक्ति की पाँच गाथाओं को उद्धृत कर शलाका पुरुषों के बल का वर्णन करते हुए तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि के बल की व्याख्या इस प्रकार की है- तीर्थंकर अपने शारीरिक बल (वीर्य) का प्रदर्शन नहीं करते, किन्तु उनमें इतनी शारीरिक क्षमता है कि वे इस लोक को उठाकर एक गेंद की तरह अलोक में फेंक सकते है। वे मंदर पर्वत को छत्र का दंड बनाकर रत्नप्रभा पृथ्वी को छत्र की तरह धारण कर सकते है। यह वास्तविकता का काल्पनिक निदर्शन है। ऐसा न होता है, न कोई करता है। पर तीर्थंकर में इतनी शक्ति होती है।
कोई चक्रवर्ती कूप के तट पर स्थित है। उनको सांकल से बाँधकर, बत्तीस हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के सहारे खींचते है, फिर भी वे उन्हें टस से मस नहीं कर सकते। प्रत्युत चक्रवर्ती अपने वामहस्त से सांकल को खींचकर उन सबको गिरा सकते है। इसी प्रकार चक्रवर्ती से आधी शक्ति वासुदेव में और वासुदेव से आधी शक्ति बलदेव में होती है। परन्तु तीर्थंकर की शक्ति चक्रवर्ती की शक्ति से भी अधिक और अपरिमित होती है। वे अनंत बल-वीर्य से युक्त होते है।
(ब) चतुष्पद - सिंह आदि का बल।
(स) अपद - अप्रशस्त-विष आदि की शक्ति तथा प्रशस्त-संजीवनी औषधि आदि की शक्ति। 136 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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