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करती है, कभी बाँहें ऊँची कर काँख दिखाती है, तो कभी पुष्ट अंगों के उभार को प्रदर्शित करती है। अपनी स्नेहपूर्ण दृष्टि से कटाक्ष करती है। इस प्रकार के अनेकविध अंग विन्यास, हावभाव तथा नाटक करके वह आत्महितैषी अणगार को अपनी ओर लुभाकर उनमें कामवासना पैदा करती है। शास्त्रकार ने इन अनुकूल उपसर्गों से साधक को कई उदाहरणों द्वारा प्रेरणा देते हुये सावधान किया है।
साधु स्त्री को "विषलित्तं कंटगं नच्चा" विषलिप्त काँटे के समान समझे । जिस प्रकार विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य केवल पश्चात्ताप ही करता है, उसी प्रकार स्त्री के वशीभूत हुआ मुनि लाख पश्चात्ताप के बावजूद उसके फँदे से नहीं निकल पाता ।
इन गाथाओं में उन यातनाओं का भी वर्णन है, जो रंगे हाथों पकड़े जाने पर साधु को दी जाती है। सामाजिक लोग उनके हाथ-पैर काट डाल देते है अथवा माँस, चमड़ी उधेड़ ली जाती है, उसे भट्टी में डालकर जला दिया जाता है, उसके अंग छीलकर उस पर क्षार भी छिड़का जाता है । अन्त में उपसंहार करते हुये कहा है कि साधु कामिनी की समस्त प्रार्थनाओं और प्रलोभनों को सुअर को फँसाने वाले चावल के दाने के समान समझे तथा उनके आमंत्रण पर उनके घरों में जाने की इच्छा न करें। जो साधु इस विषय रूपी पाश से बँधा हुआ बार-बार मोह को प्राप्त होता है, वह निर्भय होकर विचरण करने वाले माँसलोलुपी सिंह की तरह लोगों द्वारा जाल में बाँध लिया जाता है।
द्वितीय उद्देशक में शीलभ्रष्ट साधक की दशा का करुण चित्रण किया गया है । अपने चारित्र से भ्रष्ट, स्त्री का वशवर्ती वह साधु उसके लिये एक अच्छे आज्ञाकारी नौकर सी नौकरी बजाता है और उसमें भी वह धन्यता का अनुभव करता है । वह कामिनी कभी उसके सिर पर पाद प्रहार करती है तो कभी रूठने का नाटक करती है। उसे अपने पैर रचाने, कमर दबाने, महावर लगाने, कपड़े धोने, शाक भाजी लाने, श्रृंगार का सामान लाने, छाते, जूते, बर्तन, खिलौने आदि लाने के अनेक आदेश देती है, जिसका पालन वह स्त्रीमोही, पुत्रपोषक बनकर इहलोक परलोक के नष्ट होने की परवाह किये बगैर करता है और जिन्दगी भर ऊँट की तरह गृहस्थी का भार ढोता रहता है । '
एक निस्पृह, निरपेक्ष, निर्बंध साधक की यह विडम्बनाजनक स्थिति राग के कारण होती है, अत: शास्त्रकार इस उद्देशक का प्रारम्भ ही "ओएसया ण रज्जेज्जा" इस सूत्र से करते है। ओए ओज अर्थात् साधक कदापि राग न करे
126 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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