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क्योंकि राग ही आसक्ति और मोह का मूल है। शास्त्रकार ने इन स्त्रीलोलुपी साधकों की तुलना दास, जाल में फँसे मृग, नौकर, पशु तथा अधम व्यक्तियों से की है।"
अन्तिम गाथाचतुष्क द्वारा उद्देशक की परिसमप्ति करते हुये स्त्रीसंग त्याग की प्रेरणा दी गयी है। साधु स्त्री के संसर्ग, संवास से उत्पन्न पापकारी वज्रवत् कामभोगों का त्याग करे, स्त्री तथा पशुयुक्त स्थानों में वास न करे। इस प्रकार विशुद्ध लेश्यावाला स्थितप्रज्ञ, मेधावी साधु समस्त स्पर्श (शीत, उष्ण, दंश) को त्रियोग से समतापूर्वक सहन करें। स्त्रीसम्पर्क जनित कर्मरज से मुक्त, रागद्वेषरहित वह साधु मोक्ष पर्यन्त संयम में प्रवृत्त रहे।
इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होते है। इनसे काम-वासना के परिणाम जानकर उनसे विरत होने की प्रबल प्रेरणा मिलती है।
सन्दर्भ एवं टिप्पणी सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 56 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 57 (ब) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 101-102 (स) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 102-103 (अ) सूत्रकृतांग चूर्णि पृ. - 102 व्यायामो विक्रमो वीर्य सत्वं च पुरुषे गुणाः। (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 103 गुणा:- व्यायामविक्रमधैर्यसत्वादिकाः। सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 58 सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 59 सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 61-62 (अ) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा - 63 (ब) सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 104-105 सूयगडो, 1/4/1/2-3 सूयगडो, 1/4/2/2-16 सूत्रकृतांग वृत्ति पत्र - 115 सूत्रकृतांग सूत्र - 1/4/2/18 सूत्रकृतांग सूत्र - 1/4/2/22
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सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 127
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