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________________ 1. अभयकुमार - बुद्धिबल के धनी। 2. चण्डप्रद्योत - शरीरबल के धनी। 3. कूलबाल - तपोबल के धनी। ये तीनों पुरुष, जो अपने आपको शूर मानते थे, वे भी कृत्रिम प्रेम का प्रदर्शन करने में प्रवीण तथा माया प्रधान स्त्रियों के वशीभूत हो गये। जो पुरुष धर्म में दृढ़मति वाला होता है, वही शूर है, वीर है और सात्त्विक है। धर्म के प्रति निरुत्साही व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशली होने पर भी शूर नहीं होता। प्रस्तुत अध्ययन में जो स्त्रियों की निन्दा की गयी है, वह एकांगी दृष्टिकोण है। स्त्री अगर इतनी ही निन्दनीय या दोषों की खान होती, तो सोलह सतियाँ प्रात: स्मरणीय नहीं होती। वास्तव में स्वयं की विकृत मानसिकता तथा दबी हुई वासना ही इसका मूल कारण है। इसके प्रकट होने में स्त्री निमित्त कारण अवश्य हो सकती है। अत: स्त्री के संसर्ग से श्रमण में दोषोत्पत्ति के समान ही पुरुष के संसर्ग से श्रमणी में भी दोषोत्पत्ति सम्भव है। इसी तथ्य को नियुक्तिकार तथा वृत्तिकार दोनों ने एक स्वर से स्वीकार किया है।' तथापि इस अध्ययन का नाम पुरुष परिज्ञा न रखकर स्त्री परिज्ञा रखने का कारण चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने बताया है कि 'पुरिसोत्तरिओ धम्मो' अर्थात् पुरुष प्रधान धर्म है। धर्म के प्रवर्तक पुरुष होने से वे उत्तम है, अत: इस उत्तमता को लांछित न करने के लक्ष्य से ही प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'स्त्रीपरिज्ञा' रखा गया है। परन्तु यह समाधान मात्र व्यावहारिक दृष्टि से ही संगत है। आध्यात्मिक दृष्टि से अनेकान्तवादी किसी एक को उत्तम तथा एक को अधम नहीं कह सकता। अस्तु प्रथम उद्देशक के अर्थाधिकार में यह बताया गया है कि स्त्रियाँ किस प्रकार से साधक के पास जाकर उन्हें अपने सम्मोहन में बाँधती है। प्रथम गाथा में साधु की प्रतिज्ञा का स्मरण है। वह अपने माता-पिता, स्वजन सम्बन्धी आदि समस्त पूर्वसंयोगों का त्याग कर यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं सम्यक दर्शनज्ञान-चारित्र से परिपूर्ण होकर मैथुन से विरत होता हुआ स्त्री, नपुंसक, पशुरहित, एकान्त शान्त स्थानों में विचरण करूँगा। सुसमाहित साधक का शील नाश करने के लिये स्त्रियाँ सूक्ष्म रूप से अधिक निकट में बैठती है, गूढार्थ वाली कविता, पहेली सुनाती है, एकान्त में गुप्त बात कहती है, भिक्षा के निमित्त से घर बुलाकर एकान्त में आरामदेह पलंग, शय्या, आसन पर बैठने को कहती है, सुन्दर तथा कामपोषक पारदर्शी वस्त्रों को ढीले पहन कर स्वस्थ-सुडौल अंगों का प्रदर्शन सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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