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गन्दा किये स्थिरतापूर्वक धीरे-धीरे पीते है, उसी प्रकार रागरहित, उदासीन चित्त से स्त्री के साथ समागम करने में कोई दोष नहीं है। वृत्तिकार ने इन मतवादियों में नील वस्त्रधारी विशिष्ट साधकों, नाथवादिक मण्डल में प्रविष्ट शैव साधकों तथा स्वयूथिक कुशील पार्श्वस्थों का समावेश किया है।'
उपर्युक्त तीनों उदाहरणों का निरसन करते हुए नियुक्तिकार कहते है -10 (1) जैसे कोई व्यक्ति मंडलाग्र (तलवार) से किसी मनुष्य का सिर काटकर
पराङ्मुख होकर बैठ जाये तो भी क्या वह अपराधी के रूप में पकड़ा
नहीं जायेगा? (2) कोई व्यक्ति विषपान करके किसी अन्य को कष्ट न दे अथवा उदासीन ___ या माध्यस्थवृत्ति में स्थित होकर बैठ जाये और यह सोचे कि मुझे
किसी ने नहीं देखा, तो भी क्या वह नहीं मरेगा ? (3) कोई राजा के खजाने से रत्न चुराकर निश्चित भाव से बैठ जाये, तो
भी क्या वह राजपुरुषों द्वारा पकड़ा नहीं जायेगा ?
इन तीनों क्रियाओं में कोई उदासीन होकर बैठ जाये, फिर भी वह तद्तद् विषयक परिणामों से नहीं बच सकता, उसी प्रकार कितनी ही उदासीनता तथा निर्लेपता से स्त्री-समागम क्यों न किया जाय, वह निर्दोष या निरवद्य नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से पूर्व, करते समय तथा करने के पश्चात्- तीनों ही समय में तीव्र राग की उत्पत्ति होती है। और यह राग तीव्र मोह का बंधन करवाता है, परन्तु कुशील, पाशस्थ (स्त्रियों के जाल में बद्ध), कामान्ध साधु इन मिथ्याभासों के द्वारा अपनी वासना पूर्ति में तत्पर हो जाते है। शास्त्रकार ने इन गाथाओं में उनकी स्खलित मानसिकता का हू-ब-हू वर्णन किया है।
आगे की गाथाओं में उन अदूरदर्शी साधकों का वर्णन है, जो 'अणागयमपस्संता पच्चुप्पन्नगवेसगा' भविष्य के दुःखों को न देखने वाले मात्र वर्तमान के सुखों में आसक्त है। वे इन उपसर्गों के शिकार होकर, यौवन के क्षीण हो जाने पर, शरीर के रोगों से घिरने पर ‘पच्छा परितप्पंति' पीछे पश्चाताप करते है, परन्तु जो समय रहते ही जागृत हो धर्म में पराक्रम करते है, वे बंधनमुक्त, धीर-पुरुष असंयमी जीवन की झंखना नहीं करते।
उद्देशक की समाप्ति में उन कामविजेताओं का वर्णन है, जो वैतरणी नदी से भी दुस्तर, दुर्लघ्य स्त्री-संयोग रूप अनुकूल तथा प्रतिकूल समस्त उपसर्गों को ज्ञ परिज्ञा से सम्यक्तया जानकर तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनसे मुक्त
सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 121
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