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वे कुतीर्थ यह नहीं जानते कि किन भावों में प्रवर्त्तमान होने पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। इन कुतर्कों के जाल में उलझा साधक उसी प्रकार दुःख पाता है, जैसे पीठ पर भार वहन किये हुए गर्दभ दुःख का अनुभव करते है। यहाँ चलायमान साधु को गधे की उपमा दी गयी है, जो संयमरूपी भार को वहन करने में असमर्थ होकर तीव्र पीड़ा का अनुभव करते है ।
इसी क्रम में सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, इस बौद्ध मत का उल्लेख है । इसिभासियाई में भी इसी मान्यता का उल्लेख मिलता है। 'जिस सुख से सुख उपलब्ध होता है, वही आत्यन्तिक (मोक्ष) सुख है परन्तु जिससे दुःख का समागम होता है, मुझे उसका समागम न हो ।' यह सातिपुत्र का कथन है। मनोज्ञ भोजन और शयनासन का सेवन करके जो मनोज्ञ घर में ध्यान करता है, वही समाधि है। तथा अमनोज्ञ - भोजन, शयनासन, गृह में जो भिक्षु ध्यान करता है, वह दु:ख ही ध्यान है। यह शाक्यपुत्र बुद्ध अथा शारिपुत्र ( बौद्ध शिष्य) द्वारा कहा गया है। ऐसा चूर्णिकार मानते है । इन्हीं भावों का अंकन इन गाथाओं में किया गया है। ?
इस मिथ्यावाद के प्ररूपक प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह का सेवन करने से असंयमी है । अत: साधु इस मिथ्या मान्यता का शिकार न बने । जो व्यामूढमति साधु 'सातं सातेण विज्जई' सुख से ही सुख की प्राप्ति रूप मिथ्या उपसर्ग में उलझता है, वह अर्हत प्ररूपित परम समाधिमय मार्ग को छोड़ देता है। जिनशासन पराङ्मुख कुशील साधु अपनी कामभोगेच्छा की तृप्ति के लिये तीन प्रकार के तर्क देता है कि
(1) स्त्री - परिभोग गांठ या फोडे को दबाकर मवाद निकालने जैसा निर्दोष
है ।
(2) स्त्री - परिभोग मेंढे के जल पीने की क्रिया की तरह निर्दोष है। इसमें दूसरे को पीड़ा नहीं होती और स्वयं को भी सुख की अनुभूति होती है ।
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(3) स्त्री - परिभोग पिंगपक्षिणि के उदकपान की तरह निर्दोष है। वह आकाश से नीचे उड़ान भरकर पानी की सतह से चोंच में पानी भरकर प्यास मिटा देती है । शरीर से पानी को न छूती है और न उस पानी को हिलातीडुलाती है।"
जिस प्रकार मेंढा तथा कापिञ्जल पक्षिणी बिना सिर हिलाये, पानी को बिना
120 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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