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________________ तथा चूर्णिकार का तात्पर्य यहाँ आजीवक तथा दिगम्बर परम्परा के भिक्षुओं से है। वे इस प्रकार के आक्षेप करते है कि जो आपस में मूर्च्छित होकर गृहस्थों के समान आचरण करते है, रुग्ण को रागवश भोजन लाकर देते है, एक-दूसरे के वशवर्ती है, वे 'नट्ट - सप्पह- सब्भावा' सत्पथ तथा सद्भाव रूप परमार्थ से भ्रष्ट है, जो संसार से पार नहीं हो सकते । मोक्षविशारद साधु प्रत्याक्षेप द्वारा उन्नतीर्थिकों से कहे कि व्रण को अधिक खुजलाना ठीक नहीं बल्कि दोषकारक ही है। वह बहुगुणप्रकल्प साधु उन्हें समझायें कि गृहस्थ के धातु के भाजन में भोजन करना, सचित्त हरित, शीत, जलादि तथा ओदेशिक आदि दोषयुक्त आहार का सेवन, रोगी के लिये गृहस्थ से आहार मँगवाना आदि कार्यों द्वारा आप मात्र दोषों का ही सेवन करते है ! प्रसन्नता पूर्वक ग्लान की सेवा करना ही सेवा धर्म है। बावीस गाथाओं में ग्रथित चतुर्थ उद्देशक में अन्य तीर्थियों के हेत्वाभासों का वर्णन है, जिनसे साधक विमोहित तथा संयम भ्रष्ट हो जाता है। साधक के मन को विचलित तथा चित्त को विभ्रान्त करने वाले कुछ शिथिल साधकों के ऐसे कुतर्कों का वर्णन किया गया है, जो पूर्वकालिक महापुरुषों की दुहाई देकर अपने अनाचार को आचार में समाविष्ट करने का प्रयास करते है । शास्त्रकार उन विचलित साधकों को समझाने के लिये वस्तु स्वरूप का यथातथ्य प्ररूपण करते है। प्रारम्भिक गाथाओं में कुछ ऋषियों के नामोल्लेख के साथ संयम भ्रष्ट करने वाले उपसर्गों का भी वर्णन है। जैसे कुछ अज्ञानी यह मानते है कि प्राचीन समय में कई महापुरुषों ने सचित्त जल पीते हुये भी मोक्ष प्राप्त किया है । नमिविदेही आहार का त्यागकर के, रामगुप्त आहार का उपभोग करके, बाहुक तथा तारागण सचित्त जल का उपभोग कर मोक्ष में गये है। आसिलदेविल, द्विपायन तथा पाराशर ऋषि ने सचित्त जल, बीज, हरी वनस्पति आदि का आहार करते हुये भी सिद्धि प्राप्त की है । ये सभी ऋषिपुरुष जैन दर्शन में भी मान्य है तथा इन सभी ने 'भोच्चा बीओदगं सिद्धा' अर्थात् शीतजल - फलादि वनस्पति का उपभोग करके भी सिद्धि प्राप्त की है।' इस प्रकार की मिथ्या तथा बुद्धि को भ्रमित करने वाली धारणाएँ शिथिल साधक के मन को भ्रष्ट तथा साधना च्युत करने वाली है । निश्चय ही ये महापुरुष शीतोदक आदि का उपयोग करते थे परन्तु जिस समय उन्हें सर्वविरति भाव की प्राप्ति हुई, उस समय ही केवलज्ञान उपलब्ध हुआ । यह बात चूर्णि तथा वृत्ति में पूर्ण स्पष्ट है । ' से सूत्रकृतांग सूत्र का सर्वांगीण अध्ययन / 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003613
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Ka Darshanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherBhaiji Prakashan
Publication Year2005
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_related_other_literature
File Size18 MB
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