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स्वेच्छाचारी, पौरुषहीन, कायर साधक लाचार होकर घर की और वैसे ही पलायन कर जाते है, जैसे (संग्राम में) बाणों से बींधा हुआ हाथी पलायन कर जाता है परन्तु जो पराक्रमी, दृढ़ मनस्वी श्रमण होते है, वे किसी भी स्थिति से आहत न होते हुये सदैव निर्द्वन्द्र तथा निर्भय होकर विचरण करते है।
द्वितीय उद्देशक में अनुकूल उपसर्गों का वर्णन प्रतिपादित है। भगवान महावीर ने इसमें स्वजनों तथा बंधु-बांधवों के द्वारा करूण-विलाप तथा भोग-उपभोग का निमन्त्रण देकर अदूरदर्शी साधक को विचलित करने वाली विकट स्थितियों का वर्णन किया है।
'सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरूत्तरा' प्रथम गाथा में अनुकूल उपसर्गों को दुस्तर बताया गया है, क्योंकि प्रतिकूल उपसर्गों में तो साधक समर्थ होकर समत्ववृत्ति तथा धैर्य धारण कर लेता है परन्तु अनुकूल उपसर्ग रूप सूक्ष्म तथा स्निग्ध बहाव में मन की धारा कब प्रवाहित होने लगती है, इसका ज्ञान ही नहीं रहता। बंधुबांधव के मधुर तथा स्नेहिल संसर्ग उसके कोमल मानस को विचलित कर उसी प्रकार बांध लेते है, जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को लता वेष्टित कर लेती है । राजा, मंत्री आदि द्वारा विविध भोग्य पदार्थों का आकर्षण उसके मानस में लोभ पैदा करता है और मूढ साधक उस भँवरजाल में फँसकर उत्कृष्ट संयम पालन में अपने आपको असमर्थ मानता हुआ उसी प्रकार विषाद को प्राप्त होता है, जैसे ऊँची चढ़ाई में बूढ़े बैल।
शास्त्रकार ने दुर्बल तथा शिथिलाचारी साधक की मनोवृत्ति को सटीक उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। भोगों में उलझा, स्त्रियों में गृद्ध, संयम का बोझ उठाने में अक्षम वह साधु अंत में हारकर गृहवास की ओर प्रयाण कर जाता है। __तृतीय उद्देशक में 21 गाथाएँ है। इन गाथाओं में उन निर्बल, अल्प सत्ववाले साधकों की मानसिकता का वर्णन किया गया है, जो आत्मा में उठी भय, कुशंका
आदि संवेदनाओं से परास्त हो जाते है। स्वयं के अस्वस्थ चिन्तन तथा विकृत मानसिकता से वे उसी प्रकार ध्वस्त हो जाते है, जैसे युद्ध के समय कायर पुरुष। प्रारम्भिक गाथाओं में भिक्षु की अस्थिर, संकल्प-विकल्पों से आक्रान्त मानसिकता का यथार्थ चित्रण है। जो भिक्षु इन संवेदनाओं पर विजय पा लेता है, वह उन वीर योद्धाओं की तरह पराक्रमवान है, जो संग्राम समय में 'किं परं मरणं सिया' मृत्यु की चिन्ता नहीं करता।
इसी उद्देशक में परवादियों के आक्षेप रूप उपसर्गों का भी वर्णन है। वृत्तिकार
118 / सूत्रकृतांग सूत्र का दार्शनिक अध्ययन
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